मंगलवार, 30 जुलाई 2013

खाद्य सुरक्षा बिल-फायदा या नुकसान

    खाद्य सुरक्षा बिल- फायदा या नुकसान

आज़ादी के 65 सालों बाद भी हमारे देश में सभी लोगों को दो वक़्त का भोजन नहीं मिल पाता है .जहाँ २० साल में भारत ने हर मोर्चे पर तरक्की की है ,वहीँ आश्चर्यजनक ढंग से कुपोषण में भी जबरदस्त इज़ाफा हुआ है .वर्ल्ड बैंक के अनुसार ,भारत में पांच वर्ष से कम बच्चों  का कुपोषण स्तर दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या भारत में 41 करोड़ है ,यह संख्या उनकी है ,जिनकी आमदनी 1.26 डॉलर से भी कम है.हर बार सरकार गरीबों के लिए नये नये वादों के साथ सत्ता में आती तो है ,पर गरीबों की हालत जस की तस बनी रही . चार साल पहले केंद्र की यु .पी ए सरकार ने अपनी चुनावी घोषणा पत्र में खाद्य सुरक्षा बिल लाने का वादा किया था.



                     शुरुवाती चार सालों में तो केंद्र सरकार ने इस बिल को पास करवाने में कोई तत्परता नहीं दिखाई ,लेकिन चुनाव नजदिक आते हीं, इस बिल को पास करवाने के लिए यूपीए सरकार एड़ी चोटी का जोर लगाने लगी .
-आइये जानते हैं कि आखिर क्या है खाद्य सुरक्षा बिल और इसके फायदे?
-इसके तहत ३ सालों तक चावल ३ रूपये किलो ,गेंहू २ रूपये किलो और मोटा अनाज १ रूपये किलो देने का प्रावधान है.
-योजना का लाभ पाने का हक़दार कौन होगा,ये तय करने की जिम्मेदारी केंद्र ने राज्य सरकारों पर छोड़ दी है.
-घर की सबसे बुजुर्ग महिला को परिवार का मुखिया माना जायेगा
-गर्भवती महिला और बच्चों को ,दूध पिलाने वाली महिलाओं को भोजन के अलावा अन्य मातृत्व लाभ (कम से कम 6००० रूपये) भी मिलेंगे .
-इस योजना को लागू करने के लिए सरकार को इस वर्ष (2013-14)612.3 लाख टन अनाजों की जरूरत होगी .
- केंद्र को अनाज के खरीद और वितरण के लिए 1.25 करोड़ रूपये खर्च करने होंगे.
-गांवों की 75 फीसदी और शहरों की 50 फीसदी आबादी इस योजना के दय्रदे में आएगी.
-अगर राज्य सरकार सस्ता अनाज उबलब्ध नहीं करा पायी तो,केंद्र द्वारा मदद मुहैया कराई जायगी .
-6 से 14 वर्ष की आयु वाले बच्चों को आईसीडीएस(integrated child  development service) और मिड डे मिल योजना का लाभ मिलेगा.
-शिकायतों को दूर करने के लिए सभी राज्यों को फ़ूड पैनल या आयोग बनाना होगा .अगर कोई कानून का पालन नहीं करता है तो आयोग उसपर कारवाई कर सकता है.
-इस स्कीम को आधार स्कीम के साथ लिंक्ड किया जायेगा .इसके तहत हर नागरिक को विशिष्ट पहचान नंबर दिया जायेगा ,जोकि डेटाबेस से लिंक होगा.इसमें हर कार्ड हिल्डर का बायोमेट्रिक्स डाटा होगा.
-सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत अन्त्योदय अन्न योजना के तहत आने वाले लगभग 2.43 करोड़ निर्धनतम परिवार कानूनी रूप से प्रति परिवार के हिसाब से हर महीने 35किलोग्राम खाद्यान्न पाने के हकार होंगे .
-लोकसभा में दिसम्बर,2011 में पेश मूल में लाभार्थियों को प्राथमिक और आम परिवारों के आधार पर विभाजित किया गया था . मूल विधेयक के तहत सरकार प्रथिमकता श्रेणी वाले प्रत्येक व्यक्ति को सात किलो चावल और गेंहू देगी.जबकि समान्य श्रेणी के लोगों को कम से कम तीन किलों अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे दाम पर दिया जायेगा .
-खाद्य सुरक्षा बिल में संसोधन संसदीय स्थाई समिति के रिपोर्ट के अनुसार किये गये हैं,जिसने लाभार्थियों को दो वर्गो में विभाजित करने के प्रस्ताव को समाप्त करने की सलाह दी है.पैनल ने एक समान कीमत पर हर महीने प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम अनाज दिए जाने की वकालत की.
-शुरू में इस योजना को देश के 150 पिछड़े जिले में चलाया जायेगा और बाद में इस सब्सिडी को पूरे देश में लागू किया जायेगा.



                                    ------आखिर कौन सी बाधाएं हैं इस बिल को पास कराने में?
-10 मार्च 2013 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने कुछ बदलावों के साथ विधेयक को मंजूरी दी थी .हंगामे के बीच लोकसभा में खाद्य सुरक्षा बिल 6 मई को पेश किया गया ,लेकिन सदन में भ्रष्टाचार के मुद्दों पर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगी दल के हंगामे के चलते बिल पारित नहीं हो सका.
-कुछ राज्य सरकारों ने बिल को लेकर आशंका जतायी है,जबकि कई अन्य राज्य का कहना है प्रस्तावित कानून के आलोक में जो खर्चे बढ़ेंगे ,उसका जिम्मा केंद्र सरकार खुद उठाये ,उन्हें राज्यों के ऊपर ना डाला जाये.

-गैर सरकारी संघटनो की मुख्य आलोचना यह है कि बिल में मौजूदा बाल कुपोषण से निपटने के प्रावधानों को विधिक अधिकार में बदला जा सकता था ,जबकि सरकार ने ऐसा नहीं किया .
-इससे पहले १३ जून को भी यह अध्यादेश कैबिनेट की बैठक में आया था ,लेकिन यूपीए के घटक दलों के बीच आम सहमती नहीं बन पायी थी .बैठक में तय हुआ था कि सरकार इस मुद्दे पर विपक्षी दलों के साथ भी बात करेगी और विधेयक को बुलाने के लिए विशेष सत्र बुलाएगी .सरकार ने बजट सत्र में यह विधेयक पास करवाने की कोशिश की थी ,लेकिन भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के विरोध के कारण यह नहीं हो सका था.हालांकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नेता प्रतिपक्ष मानसून सत्र को समय से पहले बुलाकर इस विधेयक पर चर्चा करने की बात भी कही थी .लेकिन सरकार इस मुद्दे पर बहस करना ही नहीं चाहती है ,सरकार बस ये चाहती है कि कैसे भी करके ये अध्यादेश जल्द से जल्द पारित हो जाये .


                                        ------इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भाजपा के वरिष्ठ नेता क्या कहते हैं.
-भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने 6 जुलाई को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख से मुलाक़ात करने के बाद संवाददाताओं से कहा कि हम संसद के आगामी मानसून सत्र में इसका विरोध नहीं करेंगे ,लेकिन हम इसमें कुछ ख़ास संशोधन चाहते हैं.हालांकि उन्होंने अभी ये स्पष्ट नहीं किया है कि भाजपा क्या संसोधन चाहती है .
             विधेयक को लाने में विलम्ब पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि संप्रग नीत कांग्रेस सरकार ने विधेयक को पारित करने में इतना समय क्यों लगाया और वह भी अध्यादेश के जरिये,जबकि सरकार ने २००४ के चुनावों में वायदा किया था कि सत्ता में आने के १०० दिन के भीतर विधेयक लाया जायेगा .उन्होंने इस अध्यादेश को लोकतंत्र पर क्रूर मजाक करार दिया.
साथ ही उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी इस विधेयक पर चर्चा करने से कभी पीछे नहीं हटेगी.कांग्रेस का ये आरोप बेबुनियाद है कि भाजपा इस बिल को पारित नहीं करने देना चाहती.श्री सिंह ने कहा कि यह बात समझ से पड़े है कि सरकार ने इस अध्यादेश को लागू करवाने हेतु इतनी हड़बड़ी क्यों दिखा रही.
-वहीँ सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह ने अध्यादेश को लेकर तीखा निशाना साधते हुए कहा कि कोंग्रेस वोट बैंक की राजनीति में लगी है और उसके इरादे ठीक नहीं हैं .लोकसभा चुनाव नजदिक हैं और कांग्रेस में ऐसे अध्यादेश ठीक उसी तरह ला रही है,जिस तरह पिछले चुनावों में पहले मनरेगा योजना को लाया गया था.
-कोंग्रेस महासचिव अजय माकन और खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने कहा कि ने विपक्ष पर आरोप लगाया कि उसने संसद के पिछले सत्र में महत्वपूर्ण विधेयक को पारित करने में महत्वपूर्ण विधेयक को पारित करने में अडचन पैदा की . उन्होंने कहा कि यह अध्यादेश उचित है, यह कई लोगो की जीवन बचने वाला ,जीवन बदलने वाला हो सकता है.



                                       -----आइये जानते हैं इस बिल पर क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स

-खाद्य सुरक्षा बिल पर असंतुष्टि जताते हुए प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ डा. देवेन्द्र शर्मा ने कहा की इस बिल पर राजनैतिक दलों में  प्रयाप्त इक्छाशक्ति का अभाव दिखता है ,उन्होंने कहा की इस मामले में ब्राज़ील में बहुत कुछ किया गया है, २००१ में ब्राज़ील में जीरो हंगर प्रोग्राम की शुरुवात की गयी थी ,और ख़ुशी की बात है कि २०१५ तक यह देश सबका पेट भरने में सक्षम हो जायेगा. वहां यह प्रोग्राम पुरे योजनाबद्ध तरीके से देश की जरूरतों के हिसाब से पूरा किया गया था,जबकि खाद्य सुरक्षा बिल पूरी तरह से वोट बटोरने के लिए लाया गया बिल लगता है.

-कृषि लागत और मूल्य  आयोग के अध्यक्ष अशोक गुलाटी को लगता है कि मौ जुदा स्तिथि में अध्यादेश शुरू में खराब लग सकता है ,लेकिन यह बाद में यह सकारात्मक परिणाम देने वाला हो सकता है .उन्होंने कहा कि उन राज्यों में जब तक हम पी डी एस व्यवस्था तय नहीं करते ,उत्पादन को स्थिर नहीं करते और भंडारण और परिवहन में निवेश नहीं करते ,तो उक्त लाभ कितने दिनों तक मिलेगा .उन्होंने कहा कि उन राज्यों में पी डी एस लीकेज रोकने की चुनौती सबसे बड़ी है,जहाँ गरीबी सबसे ज्यादा हैं.दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह होगी कि खाद्य विधेयक की मांग को पूरा करने के लिए खाद्यान्न की बड़े स्तर पर खरीद से गेंहू और चावल के बाजार से निजी कारोबारी बाहर हो जायेंगे.

-वहीँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के आयुर्वेद संकाय के एसोसियेट प्रोफेसर आनन्द चौधरी ने कहा कि सरकार के अजेंडे में सिर्फ खाद्य सुरक्षा बिल ही क्यों है ?फ़ूड सेफ्टी और स्टेंडर्ड एक्ट-2006  के बारे में कोई क्यों नहीं बात करता .उन्होंने कहा की सरकार खराब और सस्ते अनाज को गरीबों में खपाना चाहती है. सभी पोलिटिकल पार्टी सिर्फ इस बिल के बहाने अपनी राजनीति चमकाने में लगी हुई है.


                       -जे एन यू से समाज शास्त्र में पी एच.डी कर रहे शोधार्थी संजय कुमार ने बताया कि इसमें कोई शक नहीं कि खाद्य सुरक्षा बिल आज की जरूरत है ,इससे लाखों करोड़ो लोगों की भूख  मिट सकती है.लेकिन उन्होंने यहाँ की खाद्य वितरण प्रणाली पर संशय जताते हुए कहा कि बिना इसे ठीक किये सारी परियोजना धरी की धरी रह जाएगी ,साथ ही उन्होंने कोंग्रेस की मंशा पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि चुनाव के समय ही कांग्रेस को अचानक गरीबों की चिंता क्यों सताने लगी ?
                     सरकार भले ही इस बिल को पास करवाने पर बिना ही संसदीय बहस पर अड़ गयी है,और राष्ट्रपति ने भी भले ही इस अध्यादेश पर अपनी मोहर लगा दी है .परन्तु इससे यूपीए-२ की मुसीबतें कम नहीं होने वाली है.
खाद्य सुरक्षा से जुडी सरकारी योजनाओ को छूट  देने के विकासशील देशों के संघठन जी-३३ के प्रस्ताव पर अमेरिका ने अपना रवैया सख्त कर रखा है और वह भूख और कुपोषण के शिकार लोगों की पोषण जरूरतों को पूरा करने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी सीमा को लेकर भी रूचि नहीं दिखा रहा है.इससे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ एकता सकता है
                 विश्व व्यापार संगठन में अमेरिकी राजदूत माइकल पुनके ने विकासशील देशों के प्रस्ताव की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि भारत बेहिसाब सब्सिडी देकर कारोबार को धक्का पहुंचा रहा है और इससे एक नये तरह का संकट पैदा हो सकता है.

निष्कर्ष – लगभग सभी दलों और विशेषज्ञ ने खाद्य सुरक्षा बिल को आज की जरूरत बताया है ,लेकिन इस बिल को पास करवाने की हड़बड़ी ने यूपीए-२ की चुनावी महत्वकांक्षा को भी उजागर किया है .वहीँ  विपक्षी पार्टी भाजपा सहित तमाम दलों ने इस महत्वपूर्ण बिल पर संसद के दोनों सदनों पर चर्चा नहीं कराने को लेकर आलोचना की है . सभी एक्सपर्ट्स ने पहले देश की खाद्य वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की मांग की है.कुछ दलों ने इस बिल के लागू होने के बाद सरकारी खजाने पर जबर्दस्त आर्थिक बोझ पड़ने की आशंकाएं व्यक्त की है,जिससे अन्य महत्वपूर्ण योजना के  खटाई में भी जाने के आसार हैं.
श्रोत –दैनिक हिन्दुतान ,बी बी सी ,आज तक ,ग्राउंड रियलिटी(ब्लॉग,देवेन्द्र शर्मा )
धन्यवाद

राहुल आनंद
भारतीय जनसंचार संस्थान (2012-2013) ,नई दिल्ली  
   


शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

बदहाल सरकारी शिक्षण प्रणाली

मुझे पता है मेरे कुछ लिखने से क्रांति नहीं आने वाली है या फिलहाल कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आने वाला है ,लेकिन मेरा एक बहुत बेसिक सा सवाल है कि सरकारी स्कूलों में पढाई क्यों नहीं होती ? आखिर क्या वजह है की योग्य शिक्षक भी पढ़ाने से कतराते हैं ? और वही शिक्षक जब चंद पैसों के लिए उन्हीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं,तो वहाँ बहुत मन से पढ़ाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें बहुत कम पैसे मिलते हैं (नियोजित शिक्षक को छोड़कर) , कईयों को लगभग 30000 से 40000 रु तक  मासिक तनख्वाह मिलती है तो आखिर वे पढ़ातेे क्यों नहीं ?
             क्यों हमे अच्छी शिक्षा के लिए निजी विद्यालयों का मुंह ताकना पड़ता है? उनके मन माने फ़ीस को भरना पड़ता है। सरकार 2015 तक देश की 80 फीसदी आबादी को शिक्षित करना चाहती है। पर कैसे ? गरीब बच्चे फिर उन्हीं सरकारी विद्यालयों में जायेंगे ,मिड डे मिल खा कर मरेंगे ,और जो बच गये उन्हें वे सरकारी शिक्षक कैसी शिक्षा देंगे। क्या सरकार सिर्फ साक्षर बच्चो के प्रतिशत की खाना पूर्ति करना चाहती है। आखिर गरीब बच्चो को अच्छी शिक्षा पाने का हक क्यों नही है,सिर्फ इसलिए कि उनके पास महंगे निजी विद्यालयों में पढने के पैसे नहीं है। अरे, मै सरकारी विद्यालय में फाइव स्टार होटलों(महंगे निजी विद्यालय) जैसी सुविधा की बात नहीं कर रहा हूँ। मै बस बेसिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात कर रहा हूँ ,ये अधिकार गरीब बच्चों को कौन दिलाएगा ? क्या सरकार का लक्ष्य बच्चो को सिर्फ साक्षर करने का होना चाहिये या अच्छी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा। कई जगह पर इतनी घटिया पढाई होती है कि आप कल्पना नहीं कर सकते ।देश में अच्छे साइंटिस्ट नहीं है ,अच्छे डॉक्टर नहीं है ,देश में रिसर्च की स्तिथि दयनीय है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है। बड़े घर के यो- यो कल्चर वाले बच्चे यदि डॉक्टर ,इंजिनियर ,साइंटिस्ट बनते भी है ,तो वो विदेश को तरहिज देते हैं। और अधिकाँश गरीब बच्चों को वैसी शिक्षा मिल ही नहीं पाती ,जिससे वे यहाँ तक पहुंचे। एकाध जो पहुँच भी जाते हैं ,वे खुद केे मेहनत और लम्ब  संघर्षों के बाद पहुँच पाते हैं। खैर ,बुनियादी स्तर पर जब ये हाल है ,तो विश्वविद्यालयों की बात करना भी बैमानी है। फिर भी जो गिने चुने विश्वविद्यालय हैं ,वहां भी गरीब ,शोषित कितने बच्चे आ पाते हैं ,ये सबको पता है। वैसे भी जब बच्चो को सही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिली है तो वो विश्वविद्यालय तक कहाँ से आ पाएंगे?और अगर आ भी गये ,तो विश्व स्तरीय विश्विद्यालय कहाँ है हमारे पास। हाल के ही सर्वे में ये बात सामने आई है कि विश्व के शीर्ष 200 विश्विद्यालय में भारत का एक भी विश्विद्यालय शामिल नहीं है। इससे ज्यादा और शर्म की बात और क्या हो सकती है।
                    ऐसी शिक्षा पद्धति से हम किस और जा रहे हैं? क्या सिर्फ निजी विद्यालय के बच्चों को ही डॉक्टर ,इंजिनियर बनने का अधिकार है? सरकार देश के हर बच्चे को शिक्षित करना चाहती है ,पर कैसी शिक्षा देकर ।। मै ,उस दिन बहुत खुश होऊंगा ,जब उसी सरकारी स्कुल के शिक्षक अपने बच्चे को भी ख़ुशी ख़ुशी अपने ही स्कुल में शिक्षा देंगे। उसी दिन समानता आएगी ,उसी समय से देश भी खुशहाली के पथ पर आगे बढेगा।
राहुल आनंद े

फिल्म अनुभव-भाग मिल्खा भाग

फिल्म अनुभव -भाग मिल्खा भाग

जब से फिल्म देख कर आया हूँ ,जी कर रहा है ,बस
भागता जाऊं ,भागता जाऊं।
फरहान अख्तर के बेहतरीन अभिनय से सजी यह
फिल्म दर्शकों के मन में अमिटछाप छोड़ने में सफल
रहती है।किसी भी डाइरेक्टर के लिए किसी प्रसिद्ध
व्यक्ति को पर्दे पर उतारना हमेशा चुनौतीपूर्ण
होता है।, और बहुत हद तक राकेश ओम प्रकाश
मेहरा इसमें सफल भी हुए हैं।कहीं कहीं फिल्म के दृश्य
बेवजह लम्बे नज़र आते हैं,ये इस फिल्म का सबसे
कमजोर पहलु है। फिल्म थोड़ी और
छोटी हो सकती थी। निर्देशक कई दृश्य को हटाने
का मोह नहीं त्याग पाए। खैर ,यह बेहतरीन मौका है
"फ़्लाइंग सिख "मिल्खा सिंह के बारे में जानने का।
फरहान अख्तर की मेहनत देखते बनती है। पूरे फिल्म
में वे भी अपने कसे हुए सुडौल शरीर के साथ दौड़ते
नज़र आये हैं।पर जितने तेजी से वे दौड़ते हैं,फिल्म
उतनी तेजी से नहीं दौड़ पाती। फिल्म
की सिनेमेटोग्राफी बेजोड़ है।
पानी की उड़ती बूंदों ,फरहान अख्तर के पैर
की उडती धूल देखते बनते हैं।
सभी कलाकारों का अभिनय बेजोड़ है,खासकर
दिव्या दत्ता का अभिनय सराहनीय है। सोनम कपूर के
लिए इस फिल्म में करने के लिए ज्यादा कुछ
था नहीं,इसलिए उन्होंने भी ज्यादा कुछ करने
की जरूरत नहीं समझी।फिल्म का संगीत औसत है ,कई
गाने नहीं भी होते तो फिल्म को कोई नुक्सान
नहीं पहुँचता।खैर,फिर भी राहुल इस फिल्म को फरहान
अख्तर की बेजोड़ अभिनय के लिए पांच में से देता है
साढ़े तीन स्टार।
अगर आप जज्बे से लैस हैं,और कड़े परिश्रम
की अहमियत समझते हैं,तो भाग दर्शक
भाग ,नजदीकी सिनेमा हॉल तक।

गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

"नारी तुम खुद आगे आओ"..

बचपन मे फिल्मों मे जब
भी कभी स्त्रियो पर अत्याचार
के दृश्य दिखाये जाते थे ,मेरा दिल
दहल उठता था । मुझे ये समझ
नही आता था की आखिर
नारियों पर जब अत्याचार होते हैं
तो वो विरोध
क्यों नही करती ??? जब भी फिल्म
मे कुछ मनचले लड़कियो के साथ छेड़-
छाड़ करते थे , तो लड़कियाँ सिर्फ
"बचाओ -बचाओ" की आवाज
लगाती थी । यहाँ ये तर्क
दिया जा सकता है
की लड़कियां शारीरिक रूप से
कमजोर होती हैं ,तो वो कैसे हट्टे-
कट्टे पुरुषो से मुक़ाबला करे ???
चलिये यहाँ ये बात मान
भी लिया जाए लेकिन जब सास घर
मे लगातार बहुओं का शोषण
करती हैं


 
















तो प्रायः वहाँ भी लड़कियां चुप्पी का आ
ओढ़े रहती हैं । क्या ये वाजिब तर्क
है की चूँकि लड़कियाँ शारीरिक
रूप से कमजोर होतीं हैं इसलिए
वो अपना बचाव नहीं कर
पाती ??? मुझे लगता है की इससे
वाहियात तर्क और कुछ
नही हो सकता है ।
कहीं न कहीं क्या नारी भी इस
स्थिति के लिए सीधे तौर पर
जिम्मेदार नही है ??? हाँ ये सच है
की इस पुरुषवादी समाज ने (उत्तर
वैदिक काल को छोड कर ) हमेशा से
स्त्रियों को अपने पैरो तले दबाने
की कोशिश की है .
प्रायः पुरुषों की भी सारी मर्दानगी स्
अत्याचार करने में
जाया होती रही है .उदारीकरण
आने के बाद से
ही "स्त्री सशक्तिकरण" की मांग
तेजी से बढ़ी वहीँ दूसरी तरफ
स्त्री देह को उत्पाद के रूप में
विभिन्न विज्ञापनों के माध्यम से
बेचने के काम में
भी काफी तेजी आयी . स्त्रियों के
चुप्पी के आवरण ने इस
पुरुषवादी समाज
को अपना एकतरफा अधिपत्य
जमाने में सहायता प्रदान की .
पुरूषों ने स्त्रियों के मानसिक
दशा को इस कदर प्रभावित
किया की स्त्रियाँ खुद
को पुरुषों के अधीन मानने लगी .
में एक हीं विकल्प बचता है
की "नारी तुम खुद आगे आओ"..
हाँ जब तक नारी खुद आगे
नहीं आयेंगी और अपनी आवाज
उठाने के लिए पुरुषों का मुँह ताकते
रहेंगी ,तब तक कोई भी परिवर्तन
संभव नही है . भले हीं ज्यादातर
पुरुष स्त्रियों के हक और
अधिकारों की बात करें ,परन्तु
कहीं न कहीं उनके मन में
पुरुषवादी वर्चस्व के कम होने
का डर सताते रहता है . इसलिए ये
जरूरी है की लडकियां खुद अपने
अधिकारों के प्रति सचेत हो और
निडर होकर अपनी बात
रखें . समाज में पुरुषों के
समान बराबर का हक पाने के लिए
सबसे ज्यादा जरूरी है की समाज के
हर कार्य क्षेत्र में
आधी आबादी का प्रतिनिधित्व बढ़े .
जब तक स्त्रियों की आव़ाज को हर
जगह उठाने
वाली साहसी स्त्रियाँ नहीं होंगी ,तब
तक किसी भी परिवर्तन
की उम्मीद करना बेकार है .
मै अपने
कक्षा का छोटा सा उदाहरण
देना चाहूँगा ,हमारे कक्षा में
लड़कियों की संख्या काफी कम
है .जब
कक्षा प्रतिनिधि का चुनाव
हो रहा था तो किसी ने भी ये
सुनिश्चित करने की कोशिश
नहीं की कि लड़कियों का किसी भी एक
पद पर चयन सुनिश्चित
किया जाये .भले हीं यह
लोकतान्त्रिक
प्रकिया की अवहेलना होती परन्तु
इससे उन्हें अपना प्रतिनिधि मिल
जाता .इसका मतलब ये नही है
की अभी हमारे कक्षा में
जो कक्षा प्रतिनिधि हैं
वो किसी भी तरह का भेद भाव
करते हैं . चुनाव हुआ और जिसका डर
था वही हुआ. एक
भी लडकियां किसी भी पद के लिये
चयनित नही हुई
.हो सकता था अगर कोई
भी लड़की ये चुनाव
जीतती तो वो अपनी बात बेहतर
ढंग से रख पाती .कम से कम उन्हें
प्रतिनिधित्व करने का अवसर
तो प्राप्त होता .मैंने जब फेसबुक
पर जब ये बात उठाई तो एक
भी लड़कियों ने इसका सपोर्ट
नही किया .यहाँ खुद लड़कियां आगे
नही आयी .समाज में ऐसे बहुतेरे
उदाहरण हैं जहाँ उन्हें
अपना अधिकार मिल
सकता था मगर उनकी चुप्पी ने
उन्हें इस अधिकार से वंचित रख
दिया .
 

 












इससेभी बड़ी समस्या तब सामने आती हैं
जब नारी ही नारी की दुश्मन बन
जाती है .जब कोई लड़की बहु बनकर
अपने नये घर जाती हैं तो बहुत बार
उसकी सास और ननद
द्वारा ही उसे सताया जाता है .
कई बार तो ऐसी भी खबर आती है
की दहेज़ के किये खुद सास अपने बेटे
के साथ मिलकर अपने बहु को मार
देती है .ऐसा सिर्फ गाँव -घर तक
हीं सिमित नही है,कई बार
तो काफी पढ़े-लिखे घर में
भी ऐसी घटनाये होती
हैं .जो माँ अपने बेटियों को उसके
ससुराल में हर हाल में
सुखी देखना चाहती है वही माँ जब
सास बनती है तो उसका व्यवहार
बहु के प्रति बिल्कुल बदल
जाता है .ऐसी में
लड़कियों को दोहरी मार
झेलनी पड़ती है .एक
तो पुरुषवादी सत्ता के खिलाफ
तो उसे पल-पल लड़ना पड़ता है और
दूसरा जो महिलायें खुद
पुरुषवादी सत्ता का सहयोग
करती हैं उनके खिलाफ भी उन्हें
लड़ना पड़ता है .
ऐसे में जरूरत है महिलायें खुद आगे
आये और अपनी आवाज खुद से बुलंद करे
।आज कल बहुत
सारी नारी स्वंयसेवी संस्थाएँ चल
रही है जो महिलाओ पर हो रहे
अत्याचारों के विरुद्ध ज़ोर-शोर से
आवाज उठा रही है । दिक्कत ये
हो जाती है की बहुत
सारी महिलाओं को इन संस्थाओ के
बारे मे ठीक से
पता भी नही होता है , खासकर
ग्रामीण महिलाए अपने
पति को जीवन भर भगवान
मानती रहती है और
पति द्वारा किए जा रहे
किसी भी शोषण के विरुद्ध आवाज
नहीं उठाती । कहा जाता है
की अब पहले से
स्थिति काफी सुधरी है। परंतु जब
अपने आप को भारत का विकसित
राज्य कहने वाले हरियाणा मे
बलात्कार की घटनाए दिन ब दिन
बढ़ती है तो सारे आंकड़े धड़े के धड़े
रह जाते हैं ।
 

हमारे भारतीय
समाज मे बहुतेरे ऐसे उदाहरण
जहां स्त्रियो ने इस
पुरुषवादी समाज मे अपनी ज़ोर-
दार उपस्थिती दर्ज की है .किरण
बेदी इसका बहुत अच्छा उदाहरण
हैं ,जो भारत की पहली महिला आई
पी एस थी । आज भारतीय
महिलाये हर क्षेत्र मे आगे हैं परंतु ये
समाज की कुछ चुनिंदा महिलाओं
का प्रतिनिधित्व है । समाज
की आधी आबादी को समाज का कम
से कम आधा हक़
तो मिलना ही चाहिए । हमारे
यहाँ एक कहावत प्रचलित है "यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र
देवता "अर्थात
जहां नारी की पुजा होती है
वहीं देवता बसते हैं"। आजादी के
65 सालों बाद भी अगर हमारे
समाज मे नारी को उसका वाज़िब
हक़ नहीं मिल पाता है
तो भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे
बड़ी शर्म की बात और
क्या होगी ???

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

गोरैये की आत्मकथा ....

                 गोरैये की आत्मकथा
मुझे भूल तो नहीं गये ??अरे,भूल भी जाओगे तो मुझे कोई आश्चर्य ना होगा . तुम मानव होते ही इतने निष्ठुर हो .हम प्राणियों में तुम सबसे ज्यादा मोह माया का ढोंग करते हो. तो कहाँ गयी थी तुम्हारी वो मोह माया,जब तुमने हमें विलुप्ती के कगार पर पहुंचा दिया ? कहाँ गयी थी तुम्हारी वो मोह माया जब तुमने मुझे दुर्लभतम प्राणी की श्रेणी में पहुंचा दिया? तुम्हें याद न आयेगा ,मै खुद याद  दिलाती हूँ. मै गोरैया हूँ, तुम्हारे हर सुख-दुःख में साथ रहने वाली ,छोटी सी पक्षी .
                      
                          मै सदियों से मानव के आस –पास रहने वाली आम पक्षी थी .मैंने सदियों से तुम्हारी मदद कि है. 19वी शताब्दी में जब तुम मुझे दोस्त कि तरह मेडिटेरियन से एशिया और यूरोप लाये थे ,तो मैंने तुम्हारे बागों से तुम्हारे वृक्षों में पैदा होने वाले हानिकारक कीटो को ख़त्म करने में तुम्हारी मदद की थी .मै पूरी दुनिया में फैलने वाली सबसे बड़ी प्रजाति थी .और आज शहरों को तो छोड़ दो,मै गावों से भी विलुप्त होने के कगार पर हूँ.इसका यही मतलब है कि इस आधुनिकीकरण के दौर में तुम हमारे  ,और हमारे जैसे कई जीवो  की उपेक्षा लगातार करते आ रहे हो .   
                         कुछ दशक पहले ,जब छोटे-छोटे गाँव हुआ करते थे,और उसके पास बड़े –बड़े खेत-खलिहान हुआ करते थे ,तो हमे आसानी से इन खेत –खलिहान में हमारे लिए किट-पतंग मिल जाते थे .परन्तु उसके बाद तुम्हारी आबादी बढती चली गयी ,इट-पत्थर से बने कंक्रीट के घर बढ़ते गये ,और तुम्हारे खेत-खलिहान दिनों दिन छोटे होते चले गये .अब तुम्हारी जरूरते बढ़ी,तुम्हे इतने ही जमीन में अधिक पैदावार कि आवश्यकता जान पड़ी. तुम्हे अपनी जीने की फ़िक्र थी ,इसलिए तुमने अधिक पैदावार बढ़ाने के लिये ,खेतों में हानिकारक खाद डाले .इससे तुम पैदावार बढ़ा पाने में तो सफल हो गये ,लेकिन तुमने इससे खेतों के साथ साथ पर्यावरण को भी दूषित किया . जिसका नतीजा तुम जुगारू जानवर को तो बाद में भुगतना पड़ेगा ,पर इसके तत्काल हानिकारक प्रभाव से हम ना बच पाये .
                          इतने में भी तुम्हारा मन नहीं भरा तो तुमने हमारे उन फलदार वृक्षों को काट दिया ,जहाँ हम हमारे बच्चों के साथ घोसला बना कर रहते थे. फैक्टरियों से लाखो मेट्रिक टन जहरीला धुआं निकाल कर तुमने तत्काल तो हमारी जिन्दगी पर प्रश्न चिह्न लगा दिया .पर अगर यही हाल रहा तो भविष्य में तुमपर भी ऐसा ही प्रश्नचिह्न लगेगा ,और तुम लाख जतन करके भी अपने आप को नहीं बचा पाओगे .हमे तुम्हारी चिंता है ,क्योंकि हमारा-तुम्हारा सदियों का साथ रहा है ,हम तुम्हारी तरह इतने मतलबी भी नहीं हैं,कि सिर्फ अपने जीवन के बारे में सोचे .
           अरे ,तुम तो इतने बेरहम हो कि तुमने तो हमारी समूल नाश की योजना तक बना डाली है .जब तुम्हारा खेतों और वायु को प्रदूषित करने के बाद भी मन नहीं भरा तो तुमने मोबाईल टावर लगा दिए. महज सिर्फ अपनी सुविधा के लिए ,तुमने हमारे बारे में एक बार भी नहीं सोचा . हाल फिलहाल यही मोबाईल रेडिएशन हमारी जान का सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है .पहले ये मोबाईल टावर गाँव तक नहीं पहुंचे थे तो हम कम से कम गाँवों में सुरक्षित थे ,पर तुमने गावों में भी टावर बैठा कर ,हमारी रही सही उम्मीद भी तोड़ दिया  .
                           हम जानते हैं,कुछ दिनों में हम इस दुनिया के लिए इतिहास बनने वाले हैं ,हमें तब किताबों में पढ़ा जायेगा और कहा जायेगा एक था गोरैया.  पर हम नहीं चाहते की कुछ दिनों बाद तुम मानव भी हमारी ही तरह इतिहास बन जाओ .जब प्रकृति अपना कहर ढायेगी ,तब तुम्हारी सारी बुद्धिमत्ता हवा हो जायेगी .इसका उदहारण बड़े बड़े भूकंप ,सुनामी और अन्य कई भीषण प्राकृतिक आपदा से प्रकृति दे भी रही है . इस सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी का दंभ भरने वाले मानव,तुम तो खुद प्रकृति का असीमित दोहन करके अपने लिए कब्र तैयार कर रहे हो . तुम ये क्यों भूल जाते हो कि प्रकृति ने ये सृष्टि सिर्फ तुम मानवों के लिए नहीं बनायी थी,यहाँ सभी जीवों को रहने का समान अधिकार था ,अगर तुम हम जीवों को हमारे अधिकारों से वंचित करोगे तो एक दिन सृष्टि भी तुम्हें तुम्हारे अधिकारों से वंचित कर देगा .
राहुल आनंद  

शनिवार, 30 मार्च 2013

सफ़र - आई .आई.एम.सी का.....

                                                      सफ़र-आई.आई.एम .सी का
आई .आई .एम.सी में दो तरह के लोग पढ़ने आते हैं ,एक वो जो पूरी तैयारी के साथ पत्रकार बनने के लिए आते हैं  ,एक वो जो दुर्घटनावश आ जाते हैं.दुर्घटनावश आने वालों में मै भी एक था . आई.ए.एस बनने की तमन्ना थी ,प्रतियोगिता दर्पण के हर अंक में आई.ए.एस बने हर उम्मीदवार का साक्षात्कार मै बड़े ही चाव से पढता था , इन सब को लगातार पढ़ने के बाद मन में ये बैठ गया कि अगर सिविल सेवा की तैयारी करनी है  तो कोई अच्छा विकल्प तलाशना होगा . छोटे मोटे सरकारी नौकरी में  जाने का मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था . दूसरा मेरे मन में किसी बड़े प्रतिष्ठित संस्थान में पढ़ने की इक्छा  जोर –जोर से  हिलोरे मार रही थी . इसी की तलाश में मै बी.एच .यु भी गया ,पर मुझे वो चीज़ नहीं मिला ,जिसकी मै तलाश कर रहा था.


                     आई .आई.एम.सी में दाखिले के लिये मैंने हिंदी जर्नलिज्म के आलावा एड एंड पी .आर का भी फॉर्म भरा था ,तभी मेरे अन्दर बस यही सोच थी कि कैसे भी आई.आई एम.सी में बस दाखिला मिल जाये. मेरा लगातार प्रतियोगिता दर्पण पढ़ना काम आया और दोनों कोर्सों के लिए लिखित परीक्षा में मेरा चयन हो गया. हिंदी पत्रकारिता में खराब साक्षात्कार होने के बाद भी मै चुना लिया गया . इसी को मै अपनी लाइफ का टर्निंग पॉइंट मानता हूँ .
                    आई.आई एम.सी, खासकर हिंदी पत्रकारिता विभाग मानवीय संवेदना को लेकर काफी गंभीर है .मै खुद भी दयालु और संवेदनशील किस्म का इंसान हूँ, इसलिए मुझपर इस कक्षा का,आनंद सर और भूपेन सर का गहरा असर पड़ा .विचारधारा को लेकर शुरू में मुझे काफी दिक्कतें आई,दिक्कतें अभी भी हैं,पर धीरे धीरे चीजों को मैंने भी समझना शुरू किया .कक्षा में गरीबों,पिछड़ों की बातें ,समाज ,मीडिया में हो रहे शोषण की बातों ने मुझपर गहरा असर डाला है .जे.एन.यू कैम्पस आते हीं हर जगह वामपंथ और वामपंथ की बातें सुनने को मिली. वामपंथ विचारधारा से जुड़े  लोग खुद अपनी और अपनी विचारधारा का महिमामंडन करते पाये गए .शुरुवात में लगा कि पता नहीं ,मै कहाँ आ गया ? पर आनंद सर कि एक बात मेरे दिमाग में घर कर गयी  की ‘किसी भी चीज़ को पूर्णतया काला या पूर्णतया गोरा करके नहीं देखना चाहिए' . खुद मेरा मानना है कि जो  चीज़ बहुत अच्छी है ,उसमें भी कोई न कोई खराबी जरुर होती है और जो चीज़ बहुत खराब है उसमें भी कोई न कोई अच्छाई जरुर होती है.
                        कक्षा में सुबह ९ बजे की चर्चाएँ काफी रोचक होती थी ,पर उसमें छात्रों की कम उपस्थिति जोश कम करने वाली होती थी .यहाँ आने के बाद मुझे कई विचारवान दोस्त मिलें,जिनका साथ जीवन भर रहेगा ,यहाँ आने के बाद यह समझने का मौका भी मिला कि  एक हीं चीज़ को अलग –अलग तरीकों से कैसे सोचा जा सकता है.कई मायनों में आई.आई.एम.सी का हिंदी पत्रकारिता  विभाग यहाँ के अन्य विभागों से काफी अलग है .इस कक्षा में ऐसे लोग भी आते हैं जो कई मायनों में अपनी जिन्दगी हाशिये में जी रहे होते हैं . ऐसे छात्रों को आगे आते देखना काफी सुखद होता है . परन्तु कई बार क्लास और क्लास से बाहर भी मुझे ऐसा लगा ,कई छात्र ऐसे छात्रों को आगे बढ़ता देख उनकी तरक्की को पचा नहीं पा रहें हैं ,यह काफी चिंताजनक स्तिथी है .कम से कम ऐसे संस्थानों में आकर इस तरह की सोच से बाहर निकलना चाहिए . और बैचेज का तो पता नहीं पर हमारे बैच में दलित और स्त्री विमर्श दोनों पर खूब विरोध और सकारात्मक चर्चाएँ हुई,इस चीज़ को मै,अपने बैच कि सबसे बड़ी खासियत मानता हूँ.समाज के बेहतरी और बदलाव में,हम सभी छात्र अब सकारात्मक योगदान दें सकते हैं,ऐसा मेरा विश्वास है .
                       रही बात मेरी और पत्रकारिता की पढाई कि तो फिलहाल मैं क्या करूं क्या न करूं वाली स्तिथी में हूँ .नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान में लिखित परीक्षा में चयन होने के बावजूद अंतिम रूप से नहीं चुना जाना मेरे लिए थोडा निराशाजनक रहा,खासकर हिन्दुस्तान में लिखित परीक्षा और जी.डी. मिलाकर दूसरा स्थान पाने के बावजूद भी अंतिम चयन नहीं होना थोड़ा चौकाने वाला जरुर रहा .इसलिए इन दिनों मैं अपनी कमियों को टटोलने में व्यस्त हूँ.हो सकता है , या तो मुझमें कमी रही होगी या फिर मैं उनके बिजनेस मॉडल में फिट नहीं बैठ रहा होऊंगा .खैर ,जो भी हो ,मेरे लिए ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं है .मेरे आशावादी मन का मानना है की दुनिया में अवसर असीमित हैं,जरूरत है चौकन्नें रह कर उस अवसर को पहचाननें कि .
                       रही बात आई.आई.एम.सी में पत्रकारिता की पढाई कि तो और कई लोगों की तरह मेरा भी यही मानना है की दुनिया का कोई भी संस्थान नौ महीने में आपको पत्रकार नहीं बना सकता ,अगर आपके अन्दर पत्रकारिता का कीड़ा पहले से नहीं हैं ,लिखने –पढ़ने का शौक नहीं है ,आपके अन्दर मानवीय संवेदना नहीं है , तो फिर आप मशीनी पत्रकार बनके रह जायेंगे .ऐसा पत्रकार पैसा तो बहुत कमा  सकता है ,मगर देश-समाज को देनें के लिए उसके पास कुछ ना होगा. मेरा मानना है ,आई .आई एम .सी का हिंदी पत्रकारिता विभाग अच्छे सवेंदेंशील पत्रकारों कि फ़ौज खड़ा करने में सफल रहा है . ऐसे पत्रकार ,हो सकता है,आज की कोर्पोरट कल्चर मीडिया में ज्यादा सराहे न जाये,पर अपने आस पास ,अपने समाज ,अपने निजी जिंदगी में जरुर सराहा जायेगा . जो भी नये बच्चे यहाँ आना चाहते हैं,उनसे मै बस यही कहूँगा कि अगर वो सिर्फ पैसा कमाने के लिए यहाँ आना चाहते हैं,तो इसके लिए ढेर सारे संस्थान भारत में मौजूद है. और अगर सच में पत्रकारिता का जुनून है ,और अच्छे सवेंदनशील पत्रकार बनना चाहते हैं तो मेरा दावा है आई.आई एम.सी का हिंदी पत्रकारिता विभाग आपको बेहतर पत्रकार हीं नहीं वरन बेहतर इंसान बनाने का भी माद्दा रखता है .
                        ऐसी भी बात नहीं है की आई.आई एम .सी में मेरे साथ सबकुछ अच्छा हीं हुआ .यहाँ लड़कों के लिए हॉस्टल का न होना ,एक अभिशाप कि तरह है .खासकर हिंदी पत्रकारिता विभाग में ऐसे लड़के आतें हैं जिनके लिए दिल्ली जैसे शहर में रेंट पर रूम लेकर रहना काफी कठिन होता है,हॉस्टल ना होने की वजह से खाना खाने की समस्या उभर कर सामने आती है ,आई.आई.एम.सी जैसे हरे-भरे जगह से जब छात्र मुनिरका जैसी जगह में रहने जाते हैं,तो संकरे रास्ते और अंधेरे रूम मानसिक दशा को संकुचित करने का काम करते हैं.दूसरी बात ,ये सच है कि ,मै पहले सा अब बेबाक होकर लिखने लगा हूँ.पर समय कम होने के कारण पढ़ने की आदत बहुत कम हो गयी ,इस बात का मुझे बेहद मलाल रहेगा . अब तर्क देने वाले ये जरुर कहेंगे कि ,सभी के पास चौबीस घंटें हीं होते हैं,तुम्हारे लिए टाईम कोई अलग से नहीं आएगा ,वगैरह,वगैरह . पर सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक क्लास के बाद ,फिर दोस्तों के साथ बातचीत वगैरह के बाद जब रात के नौ बजे आप घर जातें हैं तो फिर किताब निकाल के पढ़ पाना बड़ा कठिन होता है .आई.आई.एम.सी की अच्छी –भली लाइब्रेरी का मै इस्तेमाल सही ढंग से नही कर पाया ,इस बात का भी मलाल रहेगा .
                        खैर ,आनंद प्रधान सर के लेक्चर ,भूपेन सर कि काम की बातें, कृष्ण सर की शुद्धिकरण की कक्षाएं, हमारे गेस्ट फैकल्टी सत्येन्द्र सर कि राजनीति ,अन्नू आनंद मेम की विकास पत्रकारिता,अमिय मोहन की स्क्रिप्ट राइटिंग ,अमरेन्द्र किशोर सर का पर्यावरण,दिलीप मंडल सर कि जिंदगी को 72 साइज़ फॉण्ट में देखने की कला,पाणिनि आनंद कि वेब पत्रकारिता,राजेश जोशी की मंजरकशी इत्यादि कि ज्ञान कि बातों ने किताब कम पढ़ पाने के दर्द को जरुर कम किया .
राहुल आनंद
                            
                                  

                               


शनिवार, 2 मार्च 2013

कुंभ दर्शन- मेरी आँखों से




दिल्ली स्टेशन
ट्रेन धीरे-धीरे अपने रफ़्तार से चल रही थी . उस दिन काफी घना कोहरा था , मै अपने भांजों के साथ इलाहबाद अपनी दीदी के घर जा रहा था. ट्रेन के ९ घंटे देरी से आने के बावजूद भी मेरा उत्साह कम नही हुआ. मुझे १२ वर्ष बाद हो रहे कुम्भ मेले में इलाहबाद जाना था ,घूमना तो उद्देश्य था ही साथ-साथ मै ये भी  जानना चाहता था की आखिर लोग कुम्भ के मेले में खो क्यों जाते हैं ? बचपन से ही इस चीज़ को फिल्मों में देखते-देखते मन में एक बच्चो जैसी अभिलाषा जाग उठी की आखिर वहां किस तरह की भीड़ होती है की लोग खो जाते हैं?
             एक सात वर्षीय लड़की जो नीली कुर्ती पहनी हुई है, अपना नाम जुली बता रही है ,जो आरा बिहार से है ,माँ का नाम कुंती देवी है , कृप्या इस बच्ची को उसके अभिवावक  जेट ब्रिज के सामने खोया-पाया विभाग से ले जाये।  मेले में घुसते हीं सबसे पहले हमें यही आवाज सुनाई दी . हम सभी एकदुसरे को देख कर हंसने लगे, कुछ देर बाद मेरे भांजे ने मुझे देखकर हँसते हुए कहा कि कुम्भ के मेले में आज भी  खोने का सिलसिला अनवरत जारी है .सरकार ने कुम्भ मेले जैसे बड़े आयोजन के अनुसार हीं वहां सुरक्षा व्यवस्था का अच्छा इंतजाम कर रखा था .रेलवे स्टेशन के पास से हीं सुरक्षा व्यवस्था के अच्छे इंतजाम थे.मैं इलाहबाद में अपनी दीदी के यहाँ एयरफोर्स कैंप में ठहरा हुआ था ,१३ कि.मी. दूर कुम्भ जाने के लिए सरकार ने वहां से हि व्यवस्था कर रखी थी।
           जाम और सुरक्षा कारणों से बस ने हमे कुम्भ से ४ कि.मी. पहले हीं उतार दिया , मेरे जैसे आरामपसंद आदमी के लिए यह यह कतई अच्छी बात नही थी,पर वहां का माहौल हीं ऐसा था की पता ही नहीं चला कि कैसे ४ कि.मी. निकल गये और हम कुम्भ के मुख्य गेट तक पहुँच गये  ,जैसा की मैंने पहले हीं वर्णन कया है की मेरे पूर्वानुमान के मुताबिक ही वहां पहुँचते हीं मुझे लोगों की खोने की आवाज सुनाई देने लगी , वैसे तो कुम्भ आने के दौरान हीं सरकारी पोस्टर के अलावा विभिन्न आखाडो के बड़े-बड़े  पोस्टर लगे हुए थे ,लेकिन कुम्भ के मुख्य गेट पहुँचते हीं अखाङो,हिन्दू धार्मिक संस्थानों और विभिन्न गुरुओं की विभिन्न जगहों पर पोस्टरों की भरमार लगी हुई थी।
नागा साधु
                   ऐसा लग रहा था कि मैं किसी मेले में नहीं बल्कि धार्मिक आयोजन में पहुँचा हूँ ,मैं जिस दिन कुम्भ पहुँचा था उस दिन दूसरे शाही स्नान का आयोजन था, इसलिए सुबह से हीं काफी भीड़ थी .कुम्भ का मेला इतना बड़ा और भव्य होता है की इसे विभिन्न सेक्टरों में बाँट दिया जाता है ,मुख्य गेट के पास से हीं नागा साधुओं का बहुत बड़ा अखाड़ा था, मैंने पहली बार किसी नागा साधु को देखा था .पूरे शरीर में भस्म लगा के ,अपने हीं दुनिया में मस्त उनलोगों को देखना बड़ा हीं रोचक अनुभव था. मै उस दिन कुम्भ दोपहर में पहुँचा था ,इसलिये  सुबह नागा साधुओं को नहाते हुए जाते नहीं देख सका . कहते हैं जब नागा साधू सामूहिक स्नान करने जाते हैं,तो ढोल बाजे बजाते हुए बड़े हीं उल्लास के साथ जातें हैं ,वह दृश्य काफी विहंगम होता है .
पिपा पुल
                       अधिक भीड़ के कारण नहाने के लिए जाने का रास्ता बदल दिया गया था ,हमे अब घूम कर संगम तक जाना था . यह हमारे लिए काफी अच्छा था क्योंकि इसी बहाने कम से कम ज्यादा मेला  घूम सके , आगे बढ़ते हीं हमे नदी पर बना अस्थायी पीपा पूल मिला ,जिसे पाड कर हमे नदी के उस पार जाना पड़ा ,पीपा पूल से कुम्भ का नजारा और भी बेहतरीन था ,मेरे समानांतर कम से कम १० और पीपा पूल दिखाई दे रहें थे ,जो की कुम्भ की सुन्दरता को बढ़ा रहें थे . पूल पार करते हीं देखा एक लाइन से साधुओं और बाबाओं के बड़े बड़े पंडाल लगे हुए हैं. किसी में सत्संग चल रहा था तो किसी में उपदेश बांटे जा रहे थे . बाहर खड़े बाबाओं के शिष्य इशारा कर-करके लोगो को बुलाने की कोशिश कर रहें थे . मैंने विशेष तौर पैर देखा की प्रायः वहां जो भी सत्संग कर रहें हैं ,सभी बाबाओं की पंडाल बहुत भव्य थी ,उनके पंडाल के आगे उनकी लक्जरी कार खरी थी तथा उनके होर्डिंग्स पर ईमेल और वेबसाइट के पते लगे हुए थे .यह सब बताता है की कैसे अब बाबा और साधु भी नये ज़माने के साथ हाईटेक होते जा रहें हैं .

संगम में डुबकी
                            आगे बढ़ने पर हमे बहुत सारी गले में पहनने वाली जंतर युक्त मालाओं की दुकान मिली .जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे ,हमारी थकावट बढती जा रही थी , मेले के अंदर आने  के करीब एक घंटे  बाद भी हम नहाने की जगह तक नहीं पहुँच पाए थे। अब मन कर रहा था कि  जल्दी से जल्दी  संगम में डूबकी लगा कर अपनी थकान को मिटाया जाये . चलते-चलते आखिरकार हम संगम किनारे गंग्नम करने पहुँच हीं गये , वहां भी पुलिस की कड़ी व्यवस्था थी, भीड़ होने के कारण लोगों को जल्दी जल्दी नहाने के लिए कहा जा रहा था .जैसे हीं मै अपने भांजे के साथ नहाने उतरा तो पानी उम्मीद के मुताबिक काफी ठंडा था ,दीदी के द्वारा कहा गया की कैसे भी हो पांच डूबकी तो लगाना हीं है ,सो हमने नाक-कान बंद किया और लगा दी डुबकी, हर-हर गंगे बोलकर , पर पानी इतना गन्दा था की लगा की हम शुद्ध हो रहें हैं या अशुद्ध .हालाकि हम जहाँ नहा रहे थे वह वास्तविक संगम(गंगा,यमुना और अदृश्य सरस्वती नदी ) से काफी दूर था ,प्रशासन द्वारा वहां जाने की सख्त मनाही थी , लेकिन यह मनाही अति विशेष लोगों के लिए नहीं थी .प्रशासन का कहना है की उस जगह पानी काफी गहरा है। 
                 खैर जो भी हो, हमसभी ने बारी-बारी से अपने ही तरीके से शाही स्नान किया।नहाते वक़्त मैंने देखा की एक अधेर उमर की महिला भी नहाना चाह रही हैं ,लेकिन पानी को देख कर डर रही थी,वहीँ पास मौजूद उन्होंने अपने बेटे से बार बार अनुरोध किया की उन्हें पकड़ कर नहला दे ,पर उनका बेटा वहां से टस से मस नहीं हुआ .मुझे ये देखकर काफी दुख हुआ की आखिर कोई बेटा अपनी माँ के प्रति इतना असंवेदनशील शील कैसे हो सकता है??? फिर हम लोगों ने नहाने में उनकी मदद की।  नहाने के बाद सच में हमारी थकान जाती रही .                                                                  




गौधूली बेला
                      अब ये तो पता नही की कुम्भ में नहाने के बाद सच में पूण्य  मिलता है या ये सिर्फ हमारे धार्मिक गुरुओं की मन की बातें हैं .पर हम सभी थकान से मुक्त हो गये और मेरी दीदी ने कहा देखा मैंने तुम्हे कहा था न की कुम्भ में नहाने से जरुर फायदा होता है। दीदी ने फिर कहा ,चलो तुम्हारा क्लास छोड़ के दिल्ली से इलाहबाद आना सफल हो गया .दीदी की इस बात पर हम सभी हंस पड़े। नहाने के बाद हम सभी वहीँ रखे हुए सूखे घास के पास बैठ गये ,पर कुछ ही देर में वहां महिला पुलिस आई और हमे वहां से भीड़ बढ़ने का हवाला देकर उठने के लिए कहने लगी। हम वैसे भी अब कुछ देर में जाने वाले थे इसलिए उनसे बिना कोई विरोध जताए ,हम वहां से आगे बढ़ गये।

                         हम वहां से धीरे-धीरे अपने घर की ओर प्रस्थान करने के  लिए आगे बढ़ने लगे ,तभी हमारे जीजाजी ने कहा की अभी तो 4 हि बजा है ,शांम में कुम्भ मेले का दृश्य काफी विहंगम होता है,आप इतनी दूर से आयें हैं तो ये भी देख कर  हीं जाईयेगा। दिन भर मेले में घुमने के बाद अब मुझे घर जाने का मन कर रहा था  -जाजी के आग्रह को मै  टाल न सका। अनिक्षा से ही सही ,अगर मैं वहां नही रुकता तो शायद मेरा "कुम्भ दर्शन" अधूरा रह जाता।हम अब अब जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहें थे ,हमे ढेरों प्रसाद की दूकान मिलती जा रहीं थी।प्रसाद खरीद कर हम जैसे हीं आगे बढ़ें, मुझे सेक्टर 2 में बहुत सारे छोटे-छोटे तम्बू  दिखें वहां जाकर पूछने पर पता चला की उन तम्बुओं में रात बिताने की व्यवस्था थी। छोटे होटल से लेकर ब्रांड 5 स्टार होटल तक वहां मौजूद थे ,जिसमे दुनिया भर की सुविधाएं मौजूद थीं।मुझे ये जानकर अच्छा लगा की चलों कुम्भ में सब अपने -अपने हिसाब से वहां रात में ठहर सकते हैं , लेकिन ये सोचकर काफी बूरा भी लगा की जब संगम में अमीर गरीब ,हिन्दू -मुस्लिम सभी बिना भेद भाव के डूबकी लगा सकते हैं तो यहाँ बाहर में इतना भेद-भाव क्यों???

कुम्भ में शांम का नजारा

                                   क्योंकि अँधेरा होने में अभी वक़्त था और हमें अब भूख भी लग रही थी ,इसलिए हम खाने वाले पंडाल की तरफ़ बढ़ने लगे . वहां पहुँचा तो पाया की हर मेले की तरह यहाँ भी सभी चीजों के दाम दोगुने और तिगुने बढ़े हुए हैं। फिर भी भूख तो लगी थी और कुछ नया भी टेस्ट करना था।मेरे जीजाजी जो यहाँ पहले भी आ चूके थे,उन्होंने कहा की यहाँ की जलेबी काफी अच्छी होती है।वैसे भी जेलेबी कथित राष्ट्रीय मिठाई के साथ-साथ मेरा फेवरेट मिठाई भी है .इसलिये मैं खुद अपने से जेलेबी लेने गया और हम सभी ने बड़े चाव से इसे खाया .उसके बाद हम सभी ने समौसे वगैरह खाए और तब तक लगभग शांम हो चुकी थी . कुम्भ मेले में सचमुच शांम का नजारा बेहतरीन होता है ,जब हम घर जाने के लिए रोड पर उपर जाने लगे तो वहां से कुम्भ का नजारा सचमुच काफी विहंगम था , चारों और भव्य पंडाल और उसमे बेहतरीन लाईट मेले की शोभा को बढ़ा रही थी।


                                   कुम्भ से लौटकर जब मै घर पहुंचा तो वहां के अनुभवों को समेट कर मैं बहुत खुश था ,परन्तु एक बात जो मेरे मन में बार-बार खटक रही थी . मैं जब कुम्भ में पंडालों के बीच से जा रहा था तो एक पंडाल के पास जहाँ लोग एक बाबा को सुन रहें थे और उनकी दान पेटी में अपनी अपने मन से रूपये-पैसे दे रहें थे वहीँ दूसरी और उनकी हीं पंडाल के बाहर एक कुष्ठ रोग से ग्रसित भिखारी लोगों से भीख मांग रहा था ,लेकिन लोग उसे पैसे देना तो दूर उसकी तरफ देख भी नहीं रहे थे .ये देखकर मुझे काफी दुःख हुआ और मेले में घुमने के दौरान भी ये दृश्य बार-बार मेरे दिमाग में घूमता रहा।कई दिनों तक इस दृश्य के बारें में सोचकर मैं काफी परेशान रहा . अभी हाल में कुम्भ यात्रियों के साथ हुए दुर्घटना ने मुझे और भी सोचने पर मजबूर कर दिया की धर्म,आस्था तो ठीक है ,पर ये कैसी आस्था है जो की लोगों के जान तक ले लेती है ,ये कैसी आस्था है की जो बाबाओं की झोली तो भरना चाहती है मगर कुष्ठ से तड़प रहे भिखारी की नहीं ???