मंगलवार, 9 जून 2015

अवसरवादी दोस्ती

वर्षों से कहा जा रहा है ,"राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता है ,न दोस्ती न दुश्मनी". परन्तु आज के राजनैतिक परिदृश्य में एक चीज़ स्थायी है ,वह है अवसरवादी दोस्ती.अब देखिये न,किसने सोचा था कि बीजेपी जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना सकती है.बीजेपी ने सरकार बनाने के लिये बकायदा अपने मुख्य अजेंडा धारा 370 तक से समझौता कर लिया.वहीँ इन दिनों रामबिलास पासवान लगातार इस अवसरवादी दोस्ती के सिरमौर बने हुए हैं.जिस एन.डी.ए. की बुराई करते वे थकते नहीं थे ,आज वे इसी का हिस्सा हैं.खैर ,नेताओं के पास इनसब पलटी मार करामातों  का एक ही जवाब होता है कि वे जनता की भलाई के लिये ऐसा कर रहें हैं. अब हाल-फिलहाल बिहार में भी ऐसा हीं कुछ होने जा रहा है.आइये इन ताज़ा घटनाक्रम की आलोचनात्मक विवेचना करते हैं.
                                        
                                                           
                                                                  2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार के राजनीति का स्वरूप ही बदल गया.हालांकि इस राजनीतिक भूचाल की पटकथा इस चुनाव से बहुत पहले ही लिखी जा चूकी थी.बिहार में नितीश कुमार  अपने मुख्यमंत्रित्व के पहले कार्यकल की बदौलत पूरे भारत में लोकप्रिय हो रहे थें,परन्तु यह लोकप्रियता इतनी ज्यादा नहीं थी कि नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती दिया जा सके.यही नितीश कुमार की निजी महत्वकांक्षा के आड़े आ रहा था.और यहीं से शुरू हुआ ,नितीश कुमार की राजनैतिक हैसियत कम होने का दौर.भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार के तौर पर घोषणा होने के बाद से नितीश कुमार को भाजपा सम्प्रदायिक पार्टी नजर आने लगी,उसके पहले सत्ता का सुख में अंधे नितीश कुमार को भाजपा का केसरिया रंग नजर नहीं आ रहा था.खैर भाजपा से अलग होकर लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला जदयू और नितीश कुमार दोनों के लिये घातक सिद्ध हुआ.
                                               उधर चारा घोटाला के आरोपी लालू यादव की संसदीय मान्यता अवैध हो चूकी थी और उनकी सदस्यता अगले छः साल के लिये रद्द हो चुकी थी.वे अगले छः साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते थे.यहीं से शुरू हुआ एक दुसरे के कट्टर विरोधी के अवसरवादी दोस्त बनने का दौर.ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की नितीश कुमार भाजपा द्वारा लोकसभा चुनाव के एक हार से इतने घबरा गये की उन्होंने सत्ता तक अपने सहयोगी जितन राम मांझी को सौप दी.नितीश कुमार जैसे मंझे और पुराने राजनैतिक खिलाड़ी से ये उम्मीद किसी को नहीं थी.बाद में जीतन राम मांझी ने नितीश कुमार की कितनी फजीहत की,इसपर चर्चा अगले आलेख में करूँगा .अभी फिलहाल लालू और नितीश की अवसरवादी दोस्ती पर फोकस करते हैं.
                                             चारा घोटाला में आरोप सिद्ध होने के बाद लालू यादव के राजनीतिक जीवन का सूर्यास्त लगभग शुरू हो चूका था.इसके आलावा अपने परिवार के सदस्य को ही राजनीतिक कमान देने की उनकी अभिलाषा ने ,उनकी तथा उनकी पार्टी का बेड़ा गर्क किया.उधर नितीश कुमार भी अपनी ताज़ा तरीन हार से छटपटा रहे थे और इधर लालू यादव को भी अपने आप को प्रसांगिक बनाये रखने का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था.ऐसे में भाजपा और सम्प्रदायिकता के नाम का चोला ओढना दोनों  की राजनैतिक मजबूरी बन चूकी थी.इसमें कोई शक नहीं है की लोकसभा चुनाव के बाद  भाजपा के पूरे देश में उदय की वजह से छोटे और राजकीय दल का अस्तित्व संकट में नजर आने लगा था.लेकिन संकट इतना भी बड़ा नहीं था की नितीश कुमार, लालू यादव से मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा करें.नितीश कुमार ने अपने कट्टर विरोधी  लालू यादव को दूबारा राजनैतिक टॉनिक पिला कर उन्हें फिर से प्रसांगिक बना दिया है.  एक ही झटके में उन्होंने बिहार के विकास और अपनी जमी जमाई राजनितिक पूंजी को ताक  में रख दिया.जिस जंगल राज का विरोध कर वे सत्ता में आये,आज उन्हीं के साथ गले मिला रहे हैं.बिहार की जनता शायद इतनी कन्फ्यूज़ कभी नहीं रही होगी.एक ने विकास पुरुष की छवि बनायी है तो दूसरे ने विकास विरोधी की.अब दोनों के मिल जाने से इनदोनो के बेस वोटरों में भी पर्याप्त अफरा तफरी का माहौल है.
                         
                                                                    दोनों मिलकर क्या मोदी कर रथ को रोक पाएंगे ?अब यह प्रश्न हीं अप्रासंगिक है.क्यों कि जनता अब लोकसभा चुनाव की खुमारी से बहुत आगे निकल चूकी  है.ताज़ा भूमि अधिग्रहण बिल और दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद भाजपा अब फिलहाल उतनी मजबूत स्तिथी में नहीं दिख रही है.लेकिन फिर भी भाजपा के बेस वोटरों को कोई कन्फ्यूजन नहीं है और वे भाजपा को ही वोट करेंगे.दूसरी तरफ मांझी भी निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं .चुनाव बाद भाजपा कम सीटें प्राप्त करने की स्तिथी में मांझी को रिझाने की कोशिश जरुर करेगी.यह सब मांझी के विधानसभा चुनाव उनकी परफोर्मेंस पर निर्भर करेगा,.खैर ,ताज़ा दिखावी और अप्रसांगिक जनता परिवार ने बिहार में नितीश कुमार को अपना नेता तय किया है,उम्मीद से विपरीत लालू यादव ने नितीश कुमार के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है,और इसको रटी रटायी सम्प्रदायिकता के खिलाफ गठबंधन का अमली जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है. बहरहाल यह गठबंधन और अवसरवादी दोस्ती विधानसभा उपचुनाव में 6-4 से आगे चल रही है.लेकिन यह देखना काफी दिलचस्प होगा की यह गठबंधन विधानसभा चुनाव में कैसा परफोर्मेंस करती है.कन्फ्यूज़ जनता विकास पुरुष और विकास विरोधी के गठबंधन को चुनेगी या हालिया मजबूती से पूरे देश में अपना एकछत्र राज्य स्थापित  करने की कोशिश में लगे भाजपा को.हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनाव भाजपा के लिये सफलता की नींद से उठ जाने का अलार्म बजा चूकी है.