मंगलवार, 30 जुलाई 2013
खाद्य सुरक्षा बिल-फायदा या नुकसान
शुक्रवार, 19 जुलाई 2013
बदहाल सरकारी शिक्षण प्रणाली
मुझे पता है मेरे कुछ लिखने से क्रांति नहीं आने वाली है या फिलहाल कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आने वाला है ,लेकिन मेरा एक बहुत बेसिक सा सवाल है कि सरकारी स्कूलों में पढाई क्यों नहीं होती ? आखिर क्या वजह है की योग्य शिक्षक भी पढ़ाने से कतराते हैं ? और वही शिक्षक जब चंद पैसों के लिए उन्हीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं,तो वहाँ बहुत मन से पढ़ाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें बहुत कम पैसे मिलते हैं (नियोजित शिक्षक को छोड़कर) , कईयों को लगभग 30000 से 40000 रु तक मासिक तनख्वाह मिलती है तो आखिर वे पढ़ातेे क्यों नहीं ?
क्यों हमे अच्छी शिक्षा के लिए निजी विद्यालयों का मुंह ताकना पड़ता है? उनके मन माने फ़ीस को भरना पड़ता है। सरकार 2015 तक देश की 80 फीसदी आबादी को शिक्षित करना चाहती है। पर कैसे ? गरीब बच्चे फिर उन्हीं सरकारी विद्यालयों में जायेंगे ,मिड डे मिल खा कर मरेंगे ,और जो बच गये उन्हें वे सरकारी शिक्षक कैसी शिक्षा देंगे। क्या सरकार सिर्फ साक्षर बच्चो के प्रतिशत की खाना पूर्ति करना चाहती है। आखिर गरीब बच्चो को अच्छी शिक्षा पाने का हक क्यों नही है,सिर्फ इसलिए कि उनके पास महंगे निजी विद्यालयों में पढने के पैसे नहीं है। अरे, मै सरकारी विद्यालय में फाइव स्टार होटलों(महंगे निजी विद्यालय) जैसी सुविधा की बात नहीं कर रहा हूँ। मै बस बेसिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात कर रहा हूँ ,ये अधिकार गरीब बच्चों को कौन दिलाएगा ? क्या सरकार का लक्ष्य बच्चो को सिर्फ साक्षर करने का होना चाहिये या अच्छी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा। कई जगह पर इतनी घटिया पढाई होती है कि आप कल्पना नहीं कर सकते ।देश में अच्छे साइंटिस्ट नहीं है ,अच्छे डॉक्टर नहीं है ,देश में रिसर्च की स्तिथि दयनीय है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है। बड़े घर के यो- यो कल्चर वाले बच्चे यदि डॉक्टर ,इंजिनियर ,साइंटिस्ट बनते भी है ,तो वो विदेश को तरहिज देते हैं। और अधिकाँश गरीब बच्चों को वैसी शिक्षा मिल ही नहीं पाती ,जिससे वे यहाँ तक पहुंचे। एकाध जो पहुँच भी जाते हैं ,वे खुद केे मेहनत और लम्ब संघर्षों के बाद पहुँच पाते हैं। खैर ,बुनियादी स्तर पर जब ये हाल है ,तो विश्वविद्यालयों की बात करना भी बैमानी है। फिर भी जो गिने चुने विश्वविद्यालय हैं ,वहां भी गरीब ,शोषित कितने बच्चे आ पाते हैं ,ये सबको पता है। वैसे भी जब बच्चो को सही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिली है तो वो विश्वविद्यालय तक कहाँ से आ पाएंगे?और अगर आ भी गये ,तो विश्व स्तरीय विश्विद्यालय कहाँ है हमारे पास। हाल के ही सर्वे में ये बात सामने आई है कि विश्व के शीर्ष 200 विश्विद्यालय में भारत का एक भी विश्विद्यालय शामिल नहीं है। इससे ज्यादा और शर्म की बात और क्या हो सकती है।
ऐसी शिक्षा पद्धति से हम किस और जा रहे हैं? क्या सिर्फ निजी विद्यालय के बच्चों को ही डॉक्टर ,इंजिनियर बनने का अधिकार है? सरकार देश के हर बच्चे को शिक्षित करना चाहती है ,पर कैसी शिक्षा देकर ।। मै ,उस दिन बहुत खुश होऊंगा ,जब उसी सरकारी स्कुल के शिक्षक अपने बच्चे को भी ख़ुशी ख़ुशी अपने ही स्कुल में शिक्षा देंगे। उसी दिन समानता आएगी ,उसी समय से देश भी खुशहाली के पथ पर आगे बढेगा।
राहुल आनंद े
फिल्म अनुभव-भाग मिल्खा भाग
फिल्म अनुभव -भाग मिल्खा भाग
जब से फिल्म देख कर आया हूँ ,जी कर रहा है ,बस
भागता जाऊं ,भागता जाऊं।
फरहान अख्तर के बेहतरीन अभिनय से सजी यह
फिल्म दर्शकों के मन में अमिटछाप छोड़ने में सफल
रहती है।किसी भी डाइरेक्टर के लिए किसी प्रसिद्ध
व्यक्ति को पर्दे पर उतारना हमेशा चुनौतीपूर्ण
होता है।, और बहुत हद तक राकेश ओम प्रकाश
मेहरा इसमें सफल भी हुए हैं।कहीं कहीं फिल्म के दृश्य
बेवजह लम्बे नज़र आते हैं,ये इस फिल्म का सबसे
कमजोर पहलु है। फिल्म थोड़ी और
छोटी हो सकती थी। निर्देशक कई दृश्य को हटाने
का मोह नहीं त्याग पाए। खैर ,यह बेहतरीन मौका है
"फ़्लाइंग सिख "मिल्खा सिंह के बारे में जानने का।
फरहान अख्तर की मेहनत देखते बनती है। पूरे फिल्म
में वे भी अपने कसे हुए सुडौल शरीर के साथ दौड़ते
नज़र आये हैं।पर जितने तेजी से वे दौड़ते हैं,फिल्म
उतनी तेजी से नहीं दौड़ पाती। फिल्म
की सिनेमेटोग्राफी बेजोड़ है।
पानी की उड़ती बूंदों ,फरहान अख्तर के पैर
की उडती धूल देखते बनते हैं।
सभी कलाकारों का अभिनय बेजोड़ है,खासकर
दिव्या दत्ता का अभिनय सराहनीय है। सोनम कपूर के
लिए इस फिल्म में करने के लिए ज्यादा कुछ
था नहीं,इसलिए उन्होंने भी ज्यादा कुछ करने
की जरूरत नहीं समझी।फिल्म का संगीत औसत है ,कई
गाने नहीं भी होते तो फिल्म को कोई नुक्सान
नहीं पहुँचता।खैर,फिर भी राहुल इस फिल्म को फरहान
अख्तर की बेजोड़ अभिनय के लिए पांच में से देता है
साढ़े तीन स्टार।
अगर आप जज्बे से लैस हैं,और कड़े परिश्रम
की अहमियत समझते हैं,तो भाग दर्शक
भाग ,नजदीकी सिनेमा हॉल तक।
गुरुवार, 4 अप्रैल 2013
"नारी तुम खुद आगे आओ"..
भी कभी स्त्रियो पर अत्याचार
के दृश्य दिखाये जाते थे ,मेरा दिल
दहल उठता था । मुझे ये समझ
नही आता था की आखिर
नारियों पर जब अत्याचार होते हैं
तो वो विरोध
क्यों नही करती ??? जब भी फिल्म
मे कुछ मनचले लड़कियो के साथ छेड़-
छाड़ करते थे , तो लड़कियाँ सिर्फ
"बचाओ -बचाओ" की आवाज
लगाती थी । यहाँ ये तर्क
दिया जा सकता है
की लड़कियां शारीरिक रूप से
कमजोर होती हैं ,तो वो कैसे हट्टे-
कट्टे पुरुषो से मुक़ाबला करे ???
चलिये यहाँ ये बात मान
भी लिया जाए लेकिन जब सास घर
मे लगातार बहुओं का शोषण
करती हैं

तो प्रायः वहाँ भी लड़कियां चुप्पी का आ
ओढ़े रहती हैं । क्या ये वाजिब तर्क
है की चूँकि लड़कियाँ शारीरिक
रूप से कमजोर होतीं हैं इसलिए
वो अपना बचाव नहीं कर
पाती ??? मुझे लगता है की इससे
वाहियात तर्क और कुछ
नही हो सकता है ।
कहीं न कहीं क्या नारी भी इस
स्थिति के लिए सीधे तौर पर
जिम्मेदार नही है ??? हाँ ये सच है
की इस पुरुषवादी समाज ने (उत्तर
वैदिक काल को छोड कर ) हमेशा से
स्त्रियों को अपने पैरो तले दबाने
की कोशिश की है .
प्रायः पुरुषों की भी सारी मर्दानगी स्
अत्याचार करने में
जाया होती रही है .उदारीकरण
आने के बाद से
ही "स्त्री सशक्तिकरण" की मांग
तेजी से बढ़ी वहीँ दूसरी तरफ
स्त्री देह को उत्पाद के रूप में
विभिन्न विज्ञापनों के माध्यम से
बेचने के काम में
भी काफी तेजी आयी . स्त्रियों के
चुप्पी के आवरण ने इस
पुरुषवादी समाज
को अपना एकतरफा अधिपत्य
जमाने में सहायता प्रदान की .
पुरूषों ने स्त्रियों के मानसिक
दशा को इस कदर प्रभावित
किया की स्त्रियाँ खुद
को पुरुषों के अधीन मानने लगी .
में एक हीं विकल्प बचता है
की "नारी तुम खुद आगे आओ"..
हाँ जब तक नारी खुद आगे
नहीं आयेंगी और अपनी आवाज
उठाने के लिए पुरुषों का मुँह ताकते
रहेंगी ,तब तक कोई भी परिवर्तन
संभव नही है . भले हीं ज्यादातर
पुरुष स्त्रियों के हक और
अधिकारों की बात करें ,परन्तु
कहीं न कहीं उनके मन में
पुरुषवादी वर्चस्व के कम होने
का डर सताते रहता है . इसलिए ये
जरूरी है की लडकियां खुद अपने
अधिकारों के प्रति सचेत हो और
निडर होकर अपनी बात
रखें . समाज में पुरुषों के
समान बराबर का हक पाने के लिए
सबसे ज्यादा जरूरी है की समाज के
हर कार्य क्षेत्र में
आधी आबादी का प्रतिनिधित्व बढ़े .
जब तक स्त्रियों की आव़ाज को हर
जगह उठाने
वाली साहसी स्त्रियाँ नहीं होंगी ,तब
तक किसी भी परिवर्तन
की उम्मीद करना बेकार है .
मै अपने
कक्षा का छोटा सा उदाहरण
देना चाहूँगा ,हमारे कक्षा में
लड़कियों की संख्या काफी कम
है .जब
कक्षा प्रतिनिधि का चुनाव
हो रहा था तो किसी ने भी ये
सुनिश्चित करने की कोशिश
नहीं की कि लड़कियों का किसी भी एक
पद पर चयन सुनिश्चित
किया जाये .भले हीं यह
लोकतान्त्रिक
प्रकिया की अवहेलना होती परन्तु
इससे उन्हें अपना प्रतिनिधि मिल
जाता .इसका मतलब ये नही है
की अभी हमारे कक्षा में
जो कक्षा प्रतिनिधि हैं
वो किसी भी तरह का भेद भाव
करते हैं . चुनाव हुआ और जिसका डर
था वही हुआ. एक
भी लडकियां किसी भी पद के लिये
चयनित नही हुई
.हो सकता था अगर कोई
भी लड़की ये चुनाव
जीतती तो वो अपनी बात बेहतर
ढंग से रख पाती .कम से कम उन्हें
प्रतिनिधित्व करने का अवसर
तो प्राप्त होता .मैंने जब फेसबुक
पर जब ये बात उठाई तो एक
भी लड़कियों ने इसका सपोर्ट
नही किया .यहाँ खुद लड़कियां आगे
नही आयी .समाज में ऐसे बहुतेरे
उदाहरण हैं जहाँ उन्हें
अपना अधिकार मिल
सकता था मगर उनकी चुप्पी ने
उन्हें इस अधिकार से वंचित रख
दिया .

इससेभी बड़ी समस्या तब सामने आती हैं
जब नारी ही नारी की दुश्मन बन
जाती है .जब कोई लड़की बहु बनकर
अपने नये घर जाती हैं तो बहुत बार
उसकी सास और ननद
द्वारा ही उसे सताया जाता है .
कई बार तो ऐसी भी खबर आती है
की दहेज़ के किये खुद सास अपने बेटे
के साथ मिलकर अपने बहु को मार
देती है .ऐसा सिर्फ गाँव -घर तक
हीं सिमित नही है,कई बार
तो काफी पढ़े-लिखे घर में
भी ऐसी घटनाये होती
हैं .जो माँ अपने बेटियों को उसके
ससुराल में हर हाल में
सुखी देखना चाहती है वही माँ जब
सास बनती है तो उसका व्यवहार
बहु के प्रति बिल्कुल बदल
जाता है .ऐसी में
लड़कियों को दोहरी मार
झेलनी पड़ती है .एक
तो पुरुषवादी सत्ता के खिलाफ
तो उसे पल-पल लड़ना पड़ता है और
दूसरा जो महिलायें खुद
पुरुषवादी सत्ता का सहयोग
करती हैं उनके खिलाफ भी उन्हें
लड़ना पड़ता है .
ऐसे में जरूरत है महिलायें खुद आगे
आये और अपनी आवाज खुद से बुलंद करे
।आज कल बहुत
सारी नारी स्वंयसेवी संस्थाएँ चल
रही है जो महिलाओ पर हो रहे
अत्याचारों के विरुद्ध ज़ोर-शोर से
आवाज उठा रही है । दिक्कत ये
हो जाती है की बहुत
सारी महिलाओं को इन संस्थाओ के
बारे मे ठीक से
पता भी नही होता है , खासकर
ग्रामीण महिलाए अपने
पति को जीवन भर भगवान
मानती रहती है और
पति द्वारा किए जा रहे
किसी भी शोषण के विरुद्ध आवाज
नहीं उठाती । कहा जाता है
की अब पहले से
स्थिति काफी सुधरी है। परंतु जब
अपने आप को भारत का विकसित
राज्य कहने वाले हरियाणा मे
बलात्कार की घटनाए दिन ब दिन
बढ़ती है तो सारे आंकड़े धड़े के धड़े
रह जाते हैं ।
हमारे भारतीय
समाज मे बहुतेरे ऐसे उदाहरण
जहां स्त्रियो ने इस
पुरुषवादी समाज मे अपनी ज़ोर-
दार उपस्थिती दर्ज की है .किरण
बेदी इसका बहुत अच्छा उदाहरण
हैं ,जो भारत की पहली महिला आई
पी एस थी । आज भारतीय
महिलाये हर क्षेत्र मे आगे हैं परंतु ये
समाज की कुछ चुनिंदा महिलाओं
का प्रतिनिधित्व है । समाज
की आधी आबादी को समाज का कम
से कम आधा हक़
तो मिलना ही चाहिए । हमारे
यहाँ एक कहावत प्रचलित है "यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र
देवता "अर्थात
जहां नारी की पुजा होती है
वहीं देवता बसते हैं"। आजादी के
65 सालों बाद भी अगर हमारे
समाज मे नारी को उसका वाज़िब
हक़ नहीं मिल पाता है
तो भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे
बड़ी शर्म की बात और
क्या होगी ???
बुधवार, 3 अप्रैल 2013
गोरैये की आत्मकथा ....
शनिवार, 30 मार्च 2013
सफ़र - आई .आई.एम.सी का.....
शनिवार, 2 मार्च 2013
कुंभ दर्शन- मेरी आँखों से
दिल्ली स्टेशन |
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नागा साधु |
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पिपा पुल |
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संगम में डुबकी |
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गौधूली बेला |
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कुम्भ में शांम का नजारा |