शनिवार, 2 मार्च 2013

कुंभ दर्शन- मेरी आँखों से




दिल्ली स्टेशन
ट्रेन धीरे-धीरे अपने रफ़्तार से चल रही थी . उस दिन काफी घना कोहरा था , मै अपने भांजों के साथ इलाहबाद अपनी दीदी के घर जा रहा था. ट्रेन के ९ घंटे देरी से आने के बावजूद भी मेरा उत्साह कम नही हुआ. मुझे १२ वर्ष बाद हो रहे कुम्भ मेले में इलाहबाद जाना था ,घूमना तो उद्देश्य था ही साथ-साथ मै ये भी  जानना चाहता था की आखिर लोग कुम्भ के मेले में खो क्यों जाते हैं ? बचपन से ही इस चीज़ को फिल्मों में देखते-देखते मन में एक बच्चो जैसी अभिलाषा जाग उठी की आखिर वहां किस तरह की भीड़ होती है की लोग खो जाते हैं?
             एक सात वर्षीय लड़की जो नीली कुर्ती पहनी हुई है, अपना नाम जुली बता रही है ,जो आरा बिहार से है ,माँ का नाम कुंती देवी है , कृप्या इस बच्ची को उसके अभिवावक  जेट ब्रिज के सामने खोया-पाया विभाग से ले जाये।  मेले में घुसते हीं सबसे पहले हमें यही आवाज सुनाई दी . हम सभी एकदुसरे को देख कर हंसने लगे, कुछ देर बाद मेरे भांजे ने मुझे देखकर हँसते हुए कहा कि कुम्भ के मेले में आज भी  खोने का सिलसिला अनवरत जारी है .सरकार ने कुम्भ मेले जैसे बड़े आयोजन के अनुसार हीं वहां सुरक्षा व्यवस्था का अच्छा इंतजाम कर रखा था .रेलवे स्टेशन के पास से हीं सुरक्षा व्यवस्था के अच्छे इंतजाम थे.मैं इलाहबाद में अपनी दीदी के यहाँ एयरफोर्स कैंप में ठहरा हुआ था ,१३ कि.मी. दूर कुम्भ जाने के लिए सरकार ने वहां से हि व्यवस्था कर रखी थी।
           जाम और सुरक्षा कारणों से बस ने हमे कुम्भ से ४ कि.मी. पहले हीं उतार दिया , मेरे जैसे आरामपसंद आदमी के लिए यह यह कतई अच्छी बात नही थी,पर वहां का माहौल हीं ऐसा था की पता ही नहीं चला कि कैसे ४ कि.मी. निकल गये और हम कुम्भ के मुख्य गेट तक पहुँच गये  ,जैसा की मैंने पहले हीं वर्णन कया है की मेरे पूर्वानुमान के मुताबिक ही वहां पहुँचते हीं मुझे लोगों की खोने की आवाज सुनाई देने लगी , वैसे तो कुम्भ आने के दौरान हीं सरकारी पोस्टर के अलावा विभिन्न आखाडो के बड़े-बड़े  पोस्टर लगे हुए थे ,लेकिन कुम्भ के मुख्य गेट पहुँचते हीं अखाङो,हिन्दू धार्मिक संस्थानों और विभिन्न गुरुओं की विभिन्न जगहों पर पोस्टरों की भरमार लगी हुई थी।
नागा साधु
                   ऐसा लग रहा था कि मैं किसी मेले में नहीं बल्कि धार्मिक आयोजन में पहुँचा हूँ ,मैं जिस दिन कुम्भ पहुँचा था उस दिन दूसरे शाही स्नान का आयोजन था, इसलिए सुबह से हीं काफी भीड़ थी .कुम्भ का मेला इतना बड़ा और भव्य होता है की इसे विभिन्न सेक्टरों में बाँट दिया जाता है ,मुख्य गेट के पास से हीं नागा साधुओं का बहुत बड़ा अखाड़ा था, मैंने पहली बार किसी नागा साधु को देखा था .पूरे शरीर में भस्म लगा के ,अपने हीं दुनिया में मस्त उनलोगों को देखना बड़ा हीं रोचक अनुभव था. मै उस दिन कुम्भ दोपहर में पहुँचा था ,इसलिये  सुबह नागा साधुओं को नहाते हुए जाते नहीं देख सका . कहते हैं जब नागा साधू सामूहिक स्नान करने जाते हैं,तो ढोल बाजे बजाते हुए बड़े हीं उल्लास के साथ जातें हैं ,वह दृश्य काफी विहंगम होता है .
पिपा पुल
                       अधिक भीड़ के कारण नहाने के लिए जाने का रास्ता बदल दिया गया था ,हमे अब घूम कर संगम तक जाना था . यह हमारे लिए काफी अच्छा था क्योंकि इसी बहाने कम से कम ज्यादा मेला  घूम सके , आगे बढ़ते हीं हमे नदी पर बना अस्थायी पीपा पूल मिला ,जिसे पाड कर हमे नदी के उस पार जाना पड़ा ,पीपा पूल से कुम्भ का नजारा और भी बेहतरीन था ,मेरे समानांतर कम से कम १० और पीपा पूल दिखाई दे रहें थे ,जो की कुम्भ की सुन्दरता को बढ़ा रहें थे . पूल पार करते हीं देखा एक लाइन से साधुओं और बाबाओं के बड़े बड़े पंडाल लगे हुए हैं. किसी में सत्संग चल रहा था तो किसी में उपदेश बांटे जा रहे थे . बाहर खड़े बाबाओं के शिष्य इशारा कर-करके लोगो को बुलाने की कोशिश कर रहें थे . मैंने विशेष तौर पैर देखा की प्रायः वहां जो भी सत्संग कर रहें हैं ,सभी बाबाओं की पंडाल बहुत भव्य थी ,उनके पंडाल के आगे उनकी लक्जरी कार खरी थी तथा उनके होर्डिंग्स पर ईमेल और वेबसाइट के पते लगे हुए थे .यह सब बताता है की कैसे अब बाबा और साधु भी नये ज़माने के साथ हाईटेक होते जा रहें हैं .

संगम में डुबकी
                            आगे बढ़ने पर हमे बहुत सारी गले में पहनने वाली जंतर युक्त मालाओं की दुकान मिली .जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे ,हमारी थकावट बढती जा रही थी , मेले के अंदर आने  के करीब एक घंटे  बाद भी हम नहाने की जगह तक नहीं पहुँच पाए थे। अब मन कर रहा था कि  जल्दी से जल्दी  संगम में डूबकी लगा कर अपनी थकान को मिटाया जाये . चलते-चलते आखिरकार हम संगम किनारे गंग्नम करने पहुँच हीं गये , वहां भी पुलिस की कड़ी व्यवस्था थी, भीड़ होने के कारण लोगों को जल्दी जल्दी नहाने के लिए कहा जा रहा था .जैसे हीं मै अपने भांजे के साथ नहाने उतरा तो पानी उम्मीद के मुताबिक काफी ठंडा था ,दीदी के द्वारा कहा गया की कैसे भी हो पांच डूबकी तो लगाना हीं है ,सो हमने नाक-कान बंद किया और लगा दी डुबकी, हर-हर गंगे बोलकर , पर पानी इतना गन्दा था की लगा की हम शुद्ध हो रहें हैं या अशुद्ध .हालाकि हम जहाँ नहा रहे थे वह वास्तविक संगम(गंगा,यमुना और अदृश्य सरस्वती नदी ) से काफी दूर था ,प्रशासन द्वारा वहां जाने की सख्त मनाही थी , लेकिन यह मनाही अति विशेष लोगों के लिए नहीं थी .प्रशासन का कहना है की उस जगह पानी काफी गहरा है। 
                 खैर जो भी हो, हमसभी ने बारी-बारी से अपने ही तरीके से शाही स्नान किया।नहाते वक़्त मैंने देखा की एक अधेर उमर की महिला भी नहाना चाह रही हैं ,लेकिन पानी को देख कर डर रही थी,वहीँ पास मौजूद उन्होंने अपने बेटे से बार बार अनुरोध किया की उन्हें पकड़ कर नहला दे ,पर उनका बेटा वहां से टस से मस नहीं हुआ .मुझे ये देखकर काफी दुख हुआ की आखिर कोई बेटा अपनी माँ के प्रति इतना असंवेदनशील शील कैसे हो सकता है??? फिर हम लोगों ने नहाने में उनकी मदद की।  नहाने के बाद सच में हमारी थकान जाती रही .                                                                  




गौधूली बेला
                      अब ये तो पता नही की कुम्भ में नहाने के बाद सच में पूण्य  मिलता है या ये सिर्फ हमारे धार्मिक गुरुओं की मन की बातें हैं .पर हम सभी थकान से मुक्त हो गये और मेरी दीदी ने कहा देखा मैंने तुम्हे कहा था न की कुम्भ में नहाने से जरुर फायदा होता है। दीदी ने फिर कहा ,चलो तुम्हारा क्लास छोड़ के दिल्ली से इलाहबाद आना सफल हो गया .दीदी की इस बात पर हम सभी हंस पड़े। नहाने के बाद हम सभी वहीँ रखे हुए सूखे घास के पास बैठ गये ,पर कुछ ही देर में वहां महिला पुलिस आई और हमे वहां से भीड़ बढ़ने का हवाला देकर उठने के लिए कहने लगी। हम वैसे भी अब कुछ देर में जाने वाले थे इसलिए उनसे बिना कोई विरोध जताए ,हम वहां से आगे बढ़ गये।

                         हम वहां से धीरे-धीरे अपने घर की ओर प्रस्थान करने के  लिए आगे बढ़ने लगे ,तभी हमारे जीजाजी ने कहा की अभी तो 4 हि बजा है ,शांम में कुम्भ मेले का दृश्य काफी विहंगम होता है,आप इतनी दूर से आयें हैं तो ये भी देख कर  हीं जाईयेगा। दिन भर मेले में घुमने के बाद अब मुझे घर जाने का मन कर रहा था  -जाजी के आग्रह को मै  टाल न सका। अनिक्षा से ही सही ,अगर मैं वहां नही रुकता तो शायद मेरा "कुम्भ दर्शन" अधूरा रह जाता।हम अब अब जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहें थे ,हमे ढेरों प्रसाद की दूकान मिलती जा रहीं थी।प्रसाद खरीद कर हम जैसे हीं आगे बढ़ें, मुझे सेक्टर 2 में बहुत सारे छोटे-छोटे तम्बू  दिखें वहां जाकर पूछने पर पता चला की उन तम्बुओं में रात बिताने की व्यवस्था थी। छोटे होटल से लेकर ब्रांड 5 स्टार होटल तक वहां मौजूद थे ,जिसमे दुनिया भर की सुविधाएं मौजूद थीं।मुझे ये जानकर अच्छा लगा की चलों कुम्भ में सब अपने -अपने हिसाब से वहां रात में ठहर सकते हैं , लेकिन ये सोचकर काफी बूरा भी लगा की जब संगम में अमीर गरीब ,हिन्दू -मुस्लिम सभी बिना भेद भाव के डूबकी लगा सकते हैं तो यहाँ बाहर में इतना भेद-भाव क्यों???

कुम्भ में शांम का नजारा

                                   क्योंकि अँधेरा होने में अभी वक़्त था और हमें अब भूख भी लग रही थी ,इसलिए हम खाने वाले पंडाल की तरफ़ बढ़ने लगे . वहां पहुँचा तो पाया की हर मेले की तरह यहाँ भी सभी चीजों के दाम दोगुने और तिगुने बढ़े हुए हैं। फिर भी भूख तो लगी थी और कुछ नया भी टेस्ट करना था।मेरे जीजाजी जो यहाँ पहले भी आ चूके थे,उन्होंने कहा की यहाँ की जलेबी काफी अच्छी होती है।वैसे भी जेलेबी कथित राष्ट्रीय मिठाई के साथ-साथ मेरा फेवरेट मिठाई भी है .इसलिये मैं खुद अपने से जेलेबी लेने गया और हम सभी ने बड़े चाव से इसे खाया .उसके बाद हम सभी ने समौसे वगैरह खाए और तब तक लगभग शांम हो चुकी थी . कुम्भ मेले में सचमुच शांम का नजारा बेहतरीन होता है ,जब हम घर जाने के लिए रोड पर उपर जाने लगे तो वहां से कुम्भ का नजारा सचमुच काफी विहंगम था , चारों और भव्य पंडाल और उसमे बेहतरीन लाईट मेले की शोभा को बढ़ा रही थी।


                                   कुम्भ से लौटकर जब मै घर पहुंचा तो वहां के अनुभवों को समेट कर मैं बहुत खुश था ,परन्तु एक बात जो मेरे मन में बार-बार खटक रही थी . मैं जब कुम्भ में पंडालों के बीच से जा रहा था तो एक पंडाल के पास जहाँ लोग एक बाबा को सुन रहें थे और उनकी दान पेटी में अपनी अपने मन से रूपये-पैसे दे रहें थे वहीँ दूसरी और उनकी हीं पंडाल के बाहर एक कुष्ठ रोग से ग्रसित भिखारी लोगों से भीख मांग रहा था ,लेकिन लोग उसे पैसे देना तो दूर उसकी तरफ देख भी नहीं रहे थे .ये देखकर मुझे काफी दुःख हुआ और मेले में घुमने के दौरान भी ये दृश्य बार-बार मेरे दिमाग में घूमता रहा।कई दिनों तक इस दृश्य के बारें में सोचकर मैं काफी परेशान रहा . अभी हाल में कुम्भ यात्रियों के साथ हुए दुर्घटना ने मुझे और भी सोचने पर मजबूर कर दिया की धर्म,आस्था तो ठीक है ,पर ये कैसी आस्था है जो की लोगों के जान तक ले लेती है ,ये कैसी आस्था है की जो बाबाओं की झोली तो भरना चाहती है मगर कुष्ठ से तड़प रहे भिखारी की नहीं ???


     

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