गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

"नारी तुम खुद आगे आओ"..

बचपन मे फिल्मों मे जब
भी कभी स्त्रियो पर अत्याचार
के दृश्य दिखाये जाते थे ,मेरा दिल
दहल उठता था । मुझे ये समझ
नही आता था की आखिर
नारियों पर जब अत्याचार होते हैं
तो वो विरोध
क्यों नही करती ??? जब भी फिल्म
मे कुछ मनचले लड़कियो के साथ छेड़-
छाड़ करते थे , तो लड़कियाँ सिर्फ
"बचाओ -बचाओ" की आवाज
लगाती थी । यहाँ ये तर्क
दिया जा सकता है
की लड़कियां शारीरिक रूप से
कमजोर होती हैं ,तो वो कैसे हट्टे-
कट्टे पुरुषो से मुक़ाबला करे ???
चलिये यहाँ ये बात मान
भी लिया जाए लेकिन जब सास घर
मे लगातार बहुओं का शोषण
करती हैं


 
















तो प्रायः वहाँ भी लड़कियां चुप्पी का आ
ओढ़े रहती हैं । क्या ये वाजिब तर्क
है की चूँकि लड़कियाँ शारीरिक
रूप से कमजोर होतीं हैं इसलिए
वो अपना बचाव नहीं कर
पाती ??? मुझे लगता है की इससे
वाहियात तर्क और कुछ
नही हो सकता है ।
कहीं न कहीं क्या नारी भी इस
स्थिति के लिए सीधे तौर पर
जिम्मेदार नही है ??? हाँ ये सच है
की इस पुरुषवादी समाज ने (उत्तर
वैदिक काल को छोड कर ) हमेशा से
स्त्रियों को अपने पैरो तले दबाने
की कोशिश की है .
प्रायः पुरुषों की भी सारी मर्दानगी स्
अत्याचार करने में
जाया होती रही है .उदारीकरण
आने के बाद से
ही "स्त्री सशक्तिकरण" की मांग
तेजी से बढ़ी वहीँ दूसरी तरफ
स्त्री देह को उत्पाद के रूप में
विभिन्न विज्ञापनों के माध्यम से
बेचने के काम में
भी काफी तेजी आयी . स्त्रियों के
चुप्पी के आवरण ने इस
पुरुषवादी समाज
को अपना एकतरफा अधिपत्य
जमाने में सहायता प्रदान की .
पुरूषों ने स्त्रियों के मानसिक
दशा को इस कदर प्रभावित
किया की स्त्रियाँ खुद
को पुरुषों के अधीन मानने लगी .
में एक हीं विकल्प बचता है
की "नारी तुम खुद आगे आओ"..
हाँ जब तक नारी खुद आगे
नहीं आयेंगी और अपनी आवाज
उठाने के लिए पुरुषों का मुँह ताकते
रहेंगी ,तब तक कोई भी परिवर्तन
संभव नही है . भले हीं ज्यादातर
पुरुष स्त्रियों के हक और
अधिकारों की बात करें ,परन्तु
कहीं न कहीं उनके मन में
पुरुषवादी वर्चस्व के कम होने
का डर सताते रहता है . इसलिए ये
जरूरी है की लडकियां खुद अपने
अधिकारों के प्रति सचेत हो और
निडर होकर अपनी बात
रखें . समाज में पुरुषों के
समान बराबर का हक पाने के लिए
सबसे ज्यादा जरूरी है की समाज के
हर कार्य क्षेत्र में
आधी आबादी का प्रतिनिधित्व बढ़े .
जब तक स्त्रियों की आव़ाज को हर
जगह उठाने
वाली साहसी स्त्रियाँ नहीं होंगी ,तब
तक किसी भी परिवर्तन
की उम्मीद करना बेकार है .
मै अपने
कक्षा का छोटा सा उदाहरण
देना चाहूँगा ,हमारे कक्षा में
लड़कियों की संख्या काफी कम
है .जब
कक्षा प्रतिनिधि का चुनाव
हो रहा था तो किसी ने भी ये
सुनिश्चित करने की कोशिश
नहीं की कि लड़कियों का किसी भी एक
पद पर चयन सुनिश्चित
किया जाये .भले हीं यह
लोकतान्त्रिक
प्रकिया की अवहेलना होती परन्तु
इससे उन्हें अपना प्रतिनिधि मिल
जाता .इसका मतलब ये नही है
की अभी हमारे कक्षा में
जो कक्षा प्रतिनिधि हैं
वो किसी भी तरह का भेद भाव
करते हैं . चुनाव हुआ और जिसका डर
था वही हुआ. एक
भी लडकियां किसी भी पद के लिये
चयनित नही हुई
.हो सकता था अगर कोई
भी लड़की ये चुनाव
जीतती तो वो अपनी बात बेहतर
ढंग से रख पाती .कम से कम उन्हें
प्रतिनिधित्व करने का अवसर
तो प्राप्त होता .मैंने जब फेसबुक
पर जब ये बात उठाई तो एक
भी लड़कियों ने इसका सपोर्ट
नही किया .यहाँ खुद लड़कियां आगे
नही आयी .समाज में ऐसे बहुतेरे
उदाहरण हैं जहाँ उन्हें
अपना अधिकार मिल
सकता था मगर उनकी चुप्पी ने
उन्हें इस अधिकार से वंचित रख
दिया .
 

 












इससेभी बड़ी समस्या तब सामने आती हैं
जब नारी ही नारी की दुश्मन बन
जाती है .जब कोई लड़की बहु बनकर
अपने नये घर जाती हैं तो बहुत बार
उसकी सास और ननद
द्वारा ही उसे सताया जाता है .
कई बार तो ऐसी भी खबर आती है
की दहेज़ के किये खुद सास अपने बेटे
के साथ मिलकर अपने बहु को मार
देती है .ऐसा सिर्फ गाँव -घर तक
हीं सिमित नही है,कई बार
तो काफी पढ़े-लिखे घर में
भी ऐसी घटनाये होती
हैं .जो माँ अपने बेटियों को उसके
ससुराल में हर हाल में
सुखी देखना चाहती है वही माँ जब
सास बनती है तो उसका व्यवहार
बहु के प्रति बिल्कुल बदल
जाता है .ऐसी में
लड़कियों को दोहरी मार
झेलनी पड़ती है .एक
तो पुरुषवादी सत्ता के खिलाफ
तो उसे पल-पल लड़ना पड़ता है और
दूसरा जो महिलायें खुद
पुरुषवादी सत्ता का सहयोग
करती हैं उनके खिलाफ भी उन्हें
लड़ना पड़ता है .
ऐसे में जरूरत है महिलायें खुद आगे
आये और अपनी आवाज खुद से बुलंद करे
।आज कल बहुत
सारी नारी स्वंयसेवी संस्थाएँ चल
रही है जो महिलाओ पर हो रहे
अत्याचारों के विरुद्ध ज़ोर-शोर से
आवाज उठा रही है । दिक्कत ये
हो जाती है की बहुत
सारी महिलाओं को इन संस्थाओ के
बारे मे ठीक से
पता भी नही होता है , खासकर
ग्रामीण महिलाए अपने
पति को जीवन भर भगवान
मानती रहती है और
पति द्वारा किए जा रहे
किसी भी शोषण के विरुद्ध आवाज
नहीं उठाती । कहा जाता है
की अब पहले से
स्थिति काफी सुधरी है। परंतु जब
अपने आप को भारत का विकसित
राज्य कहने वाले हरियाणा मे
बलात्कार की घटनाए दिन ब दिन
बढ़ती है तो सारे आंकड़े धड़े के धड़े
रह जाते हैं ।
 

हमारे भारतीय
समाज मे बहुतेरे ऐसे उदाहरण
जहां स्त्रियो ने इस
पुरुषवादी समाज मे अपनी ज़ोर-
दार उपस्थिती दर्ज की है .किरण
बेदी इसका बहुत अच्छा उदाहरण
हैं ,जो भारत की पहली महिला आई
पी एस थी । आज भारतीय
महिलाये हर क्षेत्र मे आगे हैं परंतु ये
समाज की कुछ चुनिंदा महिलाओं
का प्रतिनिधित्व है । समाज
की आधी आबादी को समाज का कम
से कम आधा हक़
तो मिलना ही चाहिए । हमारे
यहाँ एक कहावत प्रचलित है "यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र
देवता "अर्थात
जहां नारी की पुजा होती है
वहीं देवता बसते हैं"। आजादी के
65 सालों बाद भी अगर हमारे
समाज मे नारी को उसका वाज़िब
हक़ नहीं मिल पाता है
तो भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे
बड़ी शर्म की बात और
क्या होगी ???

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