मंगलवार, 9 जून 2015

अवसरवादी दोस्ती

वर्षों से कहा जा रहा है ,"राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता है ,न दोस्ती न दुश्मनी". परन्तु आज के राजनैतिक परिदृश्य में एक चीज़ स्थायी है ,वह है अवसरवादी दोस्ती.अब देखिये न,किसने सोचा था कि बीजेपी जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना सकती है.बीजेपी ने सरकार बनाने के लिये बकायदा अपने मुख्य अजेंडा धारा 370 तक से समझौता कर लिया.वहीँ इन दिनों रामबिलास पासवान लगातार इस अवसरवादी दोस्ती के सिरमौर बने हुए हैं.जिस एन.डी.ए. की बुराई करते वे थकते नहीं थे ,आज वे इसी का हिस्सा हैं.खैर ,नेताओं के पास इनसब पलटी मार करामातों  का एक ही जवाब होता है कि वे जनता की भलाई के लिये ऐसा कर रहें हैं. अब हाल-फिलहाल बिहार में भी ऐसा हीं कुछ होने जा रहा है.आइये इन ताज़ा घटनाक्रम की आलोचनात्मक विवेचना करते हैं.
                                        
                                                           
                                                                  2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार के राजनीति का स्वरूप ही बदल गया.हालांकि इस राजनीतिक भूचाल की पटकथा इस चुनाव से बहुत पहले ही लिखी जा चूकी थी.बिहार में नितीश कुमार  अपने मुख्यमंत्रित्व के पहले कार्यकल की बदौलत पूरे भारत में लोकप्रिय हो रहे थें,परन्तु यह लोकप्रियता इतनी ज्यादा नहीं थी कि नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती दिया जा सके.यही नितीश कुमार की निजी महत्वकांक्षा के आड़े आ रहा था.और यहीं से शुरू हुआ ,नितीश कुमार की राजनैतिक हैसियत कम होने का दौर.भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार के तौर पर घोषणा होने के बाद से नितीश कुमार को भाजपा सम्प्रदायिक पार्टी नजर आने लगी,उसके पहले सत्ता का सुख में अंधे नितीश कुमार को भाजपा का केसरिया रंग नजर नहीं आ रहा था.खैर भाजपा से अलग होकर लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला जदयू और नितीश कुमार दोनों के लिये घातक सिद्ध हुआ.
                                               उधर चारा घोटाला के आरोपी लालू यादव की संसदीय मान्यता अवैध हो चूकी थी और उनकी सदस्यता अगले छः साल के लिये रद्द हो चुकी थी.वे अगले छः साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते थे.यहीं से शुरू हुआ एक दुसरे के कट्टर विरोधी के अवसरवादी दोस्त बनने का दौर.ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की नितीश कुमार भाजपा द्वारा लोकसभा चुनाव के एक हार से इतने घबरा गये की उन्होंने सत्ता तक अपने सहयोगी जितन राम मांझी को सौप दी.नितीश कुमार जैसे मंझे और पुराने राजनैतिक खिलाड़ी से ये उम्मीद किसी को नहीं थी.बाद में जीतन राम मांझी ने नितीश कुमार की कितनी फजीहत की,इसपर चर्चा अगले आलेख में करूँगा .अभी फिलहाल लालू और नितीश की अवसरवादी दोस्ती पर फोकस करते हैं.
                                             चारा घोटाला में आरोप सिद्ध होने के बाद लालू यादव के राजनीतिक जीवन का सूर्यास्त लगभग शुरू हो चूका था.इसके आलावा अपने परिवार के सदस्य को ही राजनीतिक कमान देने की उनकी अभिलाषा ने ,उनकी तथा उनकी पार्टी का बेड़ा गर्क किया.उधर नितीश कुमार भी अपनी ताज़ा तरीन हार से छटपटा रहे थे और इधर लालू यादव को भी अपने आप को प्रसांगिक बनाये रखने का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था.ऐसे में भाजपा और सम्प्रदायिकता के नाम का चोला ओढना दोनों  की राजनैतिक मजबूरी बन चूकी थी.इसमें कोई शक नहीं है की लोकसभा चुनाव के बाद  भाजपा के पूरे देश में उदय की वजह से छोटे और राजकीय दल का अस्तित्व संकट में नजर आने लगा था.लेकिन संकट इतना भी बड़ा नहीं था की नितीश कुमार, लालू यादव से मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा करें.नितीश कुमार ने अपने कट्टर विरोधी  लालू यादव को दूबारा राजनैतिक टॉनिक पिला कर उन्हें फिर से प्रसांगिक बना दिया है.  एक ही झटके में उन्होंने बिहार के विकास और अपनी जमी जमाई राजनितिक पूंजी को ताक  में रख दिया.जिस जंगल राज का विरोध कर वे सत्ता में आये,आज उन्हीं के साथ गले मिला रहे हैं.बिहार की जनता शायद इतनी कन्फ्यूज़ कभी नहीं रही होगी.एक ने विकास पुरुष की छवि बनायी है तो दूसरे ने विकास विरोधी की.अब दोनों के मिल जाने से इनदोनो के बेस वोटरों में भी पर्याप्त अफरा तफरी का माहौल है.
                         
                                                                    दोनों मिलकर क्या मोदी कर रथ को रोक पाएंगे ?अब यह प्रश्न हीं अप्रासंगिक है.क्यों कि जनता अब लोकसभा चुनाव की खुमारी से बहुत आगे निकल चूकी  है.ताज़ा भूमि अधिग्रहण बिल और दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद भाजपा अब फिलहाल उतनी मजबूत स्तिथी में नहीं दिख रही है.लेकिन फिर भी भाजपा के बेस वोटरों को कोई कन्फ्यूजन नहीं है और वे भाजपा को ही वोट करेंगे.दूसरी तरफ मांझी भी निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं .चुनाव बाद भाजपा कम सीटें प्राप्त करने की स्तिथी में मांझी को रिझाने की कोशिश जरुर करेगी.यह सब मांझी के विधानसभा चुनाव उनकी परफोर्मेंस पर निर्भर करेगा,.खैर ,ताज़ा दिखावी और अप्रसांगिक जनता परिवार ने बिहार में नितीश कुमार को अपना नेता तय किया है,उम्मीद से विपरीत लालू यादव ने नितीश कुमार के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है,और इसको रटी रटायी सम्प्रदायिकता के खिलाफ गठबंधन का अमली जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है. बहरहाल यह गठबंधन और अवसरवादी दोस्ती विधानसभा उपचुनाव में 6-4 से आगे चल रही है.लेकिन यह देखना काफी दिलचस्प होगा की यह गठबंधन विधानसभा चुनाव में कैसा परफोर्मेंस करती है.कन्फ्यूज़ जनता विकास पुरुष और विकास विरोधी के गठबंधन को चुनेगी या हालिया मजबूती से पूरे देश में अपना एकछत्र राज्य स्थापित  करने की कोशिश में लगे भाजपा को.हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनाव भाजपा के लिये सफलता की नींद से उठ जाने का अलार्म बजा चूकी है.

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

एक होनहार क्रिकेटर का अंत.....

                              एक होनहार क्रिकेटर का अंत .........
25 नवम्बर को अचानक पूरा क्रिकेट जगत सकते में आ गया ,जब फिलिप ह्युज के सर में बाउंसर से  चोट लगने और उसके बाद मुंह के बल पिच पर गिरने की  खबर आई. उस समय सिडनी क्रिकेट ग्राउंड में मौजूद खिलाडी और दर्शक ने ये कभी नहीं सोचा होगा की अगले दो दिन के बाद इस होनहार क्रिकेटर की मौत हो जाएगी.ह्युज चोट लगने के  समय स्थानीय शैफील्ड शील्ड मैच खेल रहें थे.इस प्रतिभाशाली क्रिकेटर के मौत के बाद बांकी क्रिकेटरों के सामने अब खेल के समय सुरक्षा का प्रश्न अहम हो गया है. क्रिकेटर खासकर बल्लेबाज  खेलते समय सुरक्षा के अत्याधुनिक साजो - समान लगाते हैं,उसके बाद भी इस तरह की मौतें काफी सवाल पैदा करती हैं.ह्युज की मौत सर में चोट लगने के वक्त उस समय हुई ,जब उन्होंने अपने सर में हेलमेट लगाया हुआ था.इससे आने वाले क्रिकेटरों में यह सन्देश गया है कि कोई भी क्रिकेटर अब सुरक्षित नहीं है.जेंटल मैन गेम के खिलाडियों के मन में डर का यह भाव खेल के लिहाज से कतई सही नहीं है.
                                                                                                          ऐसा नहीं है कि ह्युज की मौत मैदान में चोट लगने से होने वाली पहली मौत है.इसके पहले भी भारत के होनहार क्रिकेटर रमन लाम्बा का निधन फरवरी 1998 में  बांग्लादेश सीरीज में अभ्यास मैच के दौरान  फील्डिंग करते समत सर में चोट लगने की वजह से हुई थी.पकिस्तान के सत्रह वर्षीय क्रिकेटर अब्दुल अजाज़  की मौत भी एक स्थानीय क्रिकेट मैच के दौरान सीने में चोट लगने से हुई थी.इससे पहले न्यूजीलेंड के एवेन चेट फिल्ड ,भारत  के नारी कांट्रेक्टर ,दक्षिण अफ्रीका के मार्क बाउचर भी चोट लगने के कारण काफी गंभीर रूप से घायल हो चूके हैं. क्रिकेट में चोट लगने की घटना क्रिकेट के शुरुवात के साथ ही शुरू हो गयी थी.क्रिकेट के  शुरुवाती दिनों  में  बेट्समैन  बिना किसी सुरक्षा के ही खेलते थे.हालांकि कुछ दिनों बाद खिलाडी पैड लगाने लगे थे,लेकिन हेलमेट पहनने की शुरुवात काफी बाद में हुई.वो भी उस दौर में जब वेस्ट इंडीज के खतरनाक गंद्बजों का बोल बाला था.बिना हेलमेट पहने खिलाडी के पास से जब सन्न आवाज करते हुए गेंद गुजरती होगी ,उस समय उनकी अवस्था का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.
            आज के अत्याधुनिक क्रिकेट में तमाम सुविधाएँ  होने के बावजूद ह्युज की मौत काफी चिंताजनक है.कई विशेषज्ञों का कहना है कि हेलमेट के बनावट में पर्याप्त सुधार की जरूरत है ,कई विशेषज्ञों का कहना है की क्रिकेट में बाउंसर गेंद को हमेशा के लिये प्रतिबंधित कर देना चाहिए.लेकिन आज के 20-20 क्रिकेट के दौर में वैसे भी गेंदबाजों  की धुनाई से क्रिकेट बल्लेबाजों का खेल बन गया है.ऐसे में अगर बाउंसर को प्रतिबंधित कर दिया गया तो गेंदबाजों के रहे सहे हौसले भी पस्त हो जायेंगे.लेकिन क्या इस तरह के मौतों को अस्वाभाविक या अकस्मात मौत का मामला को मानते हुए ऐसे ही भुला दिया जाना ठीक होगा ? सवाल कई हैं .खासकर के तब जब क्रिकेटर फिलिप ह्युज जैसा होनहार खिलाडी हो,जो हो सकता था आने वाले समय में विश्व क्रिकेट को एक नई  ऊंचाई पर ले जाता .साधारण किसान परिवार में जन्मे ह्युज ने कम समय में ही अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर दिया था.ह्युज दुनिया के ऐसी पहले सबसे कम उम्र के खिलाडी थे,जिन्होंने टेस्ट के दोनों पारियों में शतक बनाया . वह ऑस्ट्रेलिया के भी पहले क्रिकेटर थे जिन्होंने अपने वनडे के पहले मैच में ही शतक लगाया.पूरा विश्व क्रिकेट इस घटना के बाद गहरे सदमे में चला गया है.एक ऐसे होनहार और जुझारू खिलाडी की मौत हमेशा क्रिकेट और उसके प्रशंसक को खलती रहेगी.अलविदा फिलिप ह्युज ....... 

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

                          अलग तरह की फिल्म है हैदर 

भारतीय फिल्म भी अजीब मोड़ पर आ खड़ा हुआ है. एक तरफ जहाँ किक ,सिंघम जैसे मुख्य धारा की मनोरंजक फ़िल्में सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर लेती है.वहीँ दूसरी तरफ हैदर जैसी फिल्मे भी यहाँ है जो बहुत सारी तारीफों के साथ अच्छे खासे पैसे भी बटोर ले जाती है.हैदर को कला फिल्मों की श्रेणी में तो नहीं रख सकते परन्तु यह मुख्य धारा की फिल्मों से  काफी अलग है.फिल्म सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर पायेगी ,ये कहना मुश्किल है.लेकिन फिल्म समीक्षकों ने काफी दिनों बाद किसी फिल्म की इतनी तारीफ़ की है.तारीफ़ करना बनता भी है ,क्यों कि फिल्म शुरुवात से ही दर्शकों के बीच जबरदस्त पकड़ बना के चलती है.शेक्सपियर के हेमलेट से प्रेरित यह फिल्म विशाल भारद्वाज के बेहतरीन निर्देशन को साबित करती है.शाहिद कपूर काफी दिनों बाद अच्छे लगे हैं.यूं तो उनमे बेहतरीन अभिनय क्षमता है.पर खराब फिल्मों के चयन से उनकी फिल्म लगातार पिट रही थी.कुछ समय पहले विशाल भरद्वाज की हीं कमीने में उनके काम की काफी तारीफ़ हुई थी.कई बार ऐसा होता है कि कई निर्देशक कुछ ख़ास तरह के अभिनेता से बेहतर काम करा लेते हैं.फिर वही अभिनेता किसी और फिल्म में औसत लगने लगता है.ये कुछ इस तरह है कि "जौहरी को ही हीरे की पहचान होती है.खैर ये तो बात हो गयी फिल्म के मुख्य अभिनेता की ,बांकी तब्बू ,के.के.मेनन ,श्रद्धा कपूर ने भी बेजोड़ अभिनय किया है.तब्बू ने भी दिखा दिया है कि वे क्यों अलग जोनर की फिल्मों की बादशाह मानी जाती है.के.के. मेनन जैसे अभिनेता हमेशा अपनी छाप छोड़ने में सफल होते हैं,इस फिल्म में भी ऐसा ही हुआ है.श्रद्धा कपूर अभी नयी हैं,इसके बावजूद उन्होंने अच्छा अभिनय किया है.इरफ़ान खान हमेशा की तरह अपने छोटे से रोल में प्रभावी दिखें हैं.
                    फिल्म की कहानी कहीं कहीं सुस्त हो जाती है.अंतिम आधा घंटा ऐसा लगता है कि फिल्म को जबरदस्ती खिंचा गया है.इसके बावजूद फिल्म में गजब का आकर्षण है.यह ऐसा आकर्षण है जिससे आप फिल्म देखने के बाद बहुत दिनों तक मुक्त नहीं हो पाएंगे.काफी दिनों बाद ऐसी फिल्म आयी है ,जो सोशल मीडिया से लेकर लोगों की जुबान तक चर्चा का विषय है.फिल्म में कश्मीर के हालात को बखूबी दिखाया गया है.वहां के आम आदमी आये दिन कैसी दिक्कतों का सामना कर रहें हैं,सेना और आम आदमियों के बीच की खिंचा तानी को भी बखूबी दिखाया गया है.कश्मीर के मनमोहक दृश्य इस फिल्म को और भी खूबसूरत बनाते हैं.फिल्म का संगीत भले ही उतना प्रभावी नहीं है ,परन्तु फिल्म के साथ गाने जम जाते हैं.फिल्म की लोकेशन ,लाइटिंग ,दृश्य सज्जा भी अच्छी है.रही बात फिल्म की कहानी की ,तो ये हेमलेट से प्रेरित जरुर है,परन्तु निर्देशक ने इसमें फिल्म के हिसाब से जरूरी फेर बदल भी किये हैं.
                                                                          खैर ,ऐसी बेहतरीन फिल्म बनाने और उसमे कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाने के लिये विशाल भारद्वाज धन्यवाद के पात्र हैं.कुछ ही गिने चुने निर्देशक हैं,जो फिल्म के नाम पर सिर्फ फिल्म बनाते हैं,बांकी तो आपको पता हीं है.

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

"हमारे कृष्ण "

                             ----- हमारे कृष्ण ----
“अम्मा-अम्मा” -  सोहन ,राजू और विशाल  मेरे साथ नहीं खेलता है .कहता है तुम दूसरी जाति के हो .राजू कहता है कि उसके पापा ने बताया है कि मुस्लिम बहुत गंदे होते हैं,वे हर काम उल्टा करते हैं. बारह वर्ष के जीशान ने शिकायत भाव से अपनी माँ को ये बात बताई . जीशान अपनी माँ से ये भी कहता है कि मै उनसे अच्छा क्रिकेट खेलता हूँ, उसने अपनी माँ से मासूमियत बड़े भाव से कहा कि अगर हम गंदे हैं तो मेरा छक्का सबसे दूर क्यों जाता है. जीशान की माँ ने बड़े ही प्यार से अपने बेटे को गले लगाया और कहा मेरा बेटा गन्दा नहीं है. वो दुनिया का सबसे अच्छा लड़का है,जो लोग तुम्हारे साथ नहीं खेलते ,वो गंदे हैं. वो चाह कर भी जीशान को ज्यादा कुछ न समझा सकी 


                                   जीशान जिस सरकारी स्कुल में पढता था ,वहीँ उसके साथ प्रिया   भी पढाई करती था.प्रिया और जीशान अच्छे दोस्त थे.प्रिया को छोड़कर जीशान के टिफ़िन को कोई हाथ भी नहीं लगाता था. प्रिया को जीशान के माँ के हाथ की बनी सवईयाँ बहुत पसंद थी .वो बड़े ही चाव से सवई और रोटी खाती थी. प्रिया के माता पिता को ,प्रिया के साथ जीशान की दोस्ती फूटी आँख नहीं सुहाती थी. जीशान जब भी प्रिया के घर जाता, उसकी माँ नाक-मुंह सिकुड़ के कमरे से बाहर चली जाती थी .प्रिया कई बार अपनी माँ से ये पूछती कि जीशान के हमारे घर आते ही तुम क्यों ऐसा व्यवहार करती हो .जीशान की मम्मी तो बहुत अच्छी है,वो मुझसे प्यार से बातें करती है और सवईयाँ भी खिलाती है. ये सुनती ही प्रिया की माँ उसे जोड़ से डांटती और कहती ,चले जाओ उसी मुस्लिम के पास. फिर प्रिया माँ को चिढ़ाने के लिये जोड़ से कहती ,हाँ हाँ तुम देखना मै,सच में चली जाउंगी उस मुस्लिम के पास.
                                    
                                   ''जीशान को हिन्दू पर्व-त्यौहार बहुत पसंद थे. खासकर जन्माष्टमी, जन्माष्टमी के अवसर पर बच्चों को कृष्ण बना देख, उसका मन भी कृष्ण बनने को करता था. प्रिया के पिता एक कृष्ण मन्दिर के ट्रस्ट मेंबर थे. इस बार उस कृष्ण मन्दिर में जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्ण जन्म महोत्सव का आयोजन था. प्रिया के पिता रामलाल को एक 10-12 साल के एक बच्चे की तलाश थी, जो कृष्ण बनकर नृत्य कर सके .इसलिये उसे किसी श्यामले और मासूम बच्चे की तलाश थी. पहले तो उसने ट्रस्ट से जुड़े लोगो के बच्चे को ही आजमाया ,पर बात नहीं बनी. अगले दिन प्रिया जब स्कूल गयी तो उसने जीशान को ये बात बताई. जीशान ख़ुशी से झूम उठा, उसने कहा मै बनूंगा कृष्ण ,तुम अपने पापा को जल्दी से बताना कि जीशान ही कृष्ण बनेगा. फिर तुरंत उसने कुछ सोचा और हतोत्साहित होते हुए कहा ,पर मैं ,मैं तो मुस्लिम हूँ. और वैसे भी तुम्हारे मम्मी पापा तो मुझे पसंद भी नहीं करते. मै नहीं बन सकता कृष्ण . प्रिया ने बड़े ही भोलेपन से कहा, तो क्या हुआ, तुम बिलकुल कृष्ण जैसे दिखते हो और फिर तुम क्रिकेट भी तो अच्छा खेलते हो.इसलिये तुम हीं बनोगे “हमारे कृष्ण” .


                             प्रिया ने जब ये बात अपने पापा को बताई तो एक क्षण के लिये उसके पापा ने सोचा और कहा ,हाँ बेटी, तुम ठीक कह रही हो. जीशान तो बिलकुल कृष्ण जैसा ही लगता है. फिर वो कुछ देर ठहरे और कहा,-नहीं-नहीं, एक मुस्लिम कैसे कृष्ण बन सकता है .और सिर्फ कृष्ण की तरह दिखने से क्या होगा ,वो हमारी बिरादरी का भी नहीं है और फिर मंदिर ट्रस्ट वाले तो ये कभी नहीं मानेंगे कि एक मुस्लिम के कदम हमारे मंदिर में पड़े. नहीं, ये नहीं हो सकता. वैसे भी उसका भगवान हमसे अलग है, वो हमारे भगवान का रोल क्यों अदा करे भला. प्रिया के पापा ने इतना कहा, और वहां से चलते बने. प्रिया को ये समझ ही नहीं आया कि जब जीशान भी मेरे तरह ही पढता है,खेलता है और बातें करता है तो वह हमसे अलग कैसे हुआ ? और तो और वह कृष्ण की तरह ही दीखता भी तो है, फिर उसका भगवान हमसें अलग क्यों है ?


                              अगले दिन जब वह स्कुल गयी और जीशान को ये बात बताई की चूँकि तुम मुस्लिम हो और तुम्हारा भगवान भी हमसे अलग है .इसलिये तुम कृष्ण नहीं बन सकते. जीशान निराश हो गया, उसे समझ नहीं आया कि मुस्लिम होने में बुराई क्या है? मै कृष्ण क्यों नहीं बन सकता, मेरा भगवान अलग क्यों है ? प्रिया और जीशान दोनों निराश हो गये. फिर प्रिया ने जीशान से कहा ,क्यों न हम जन्माष्टमी के दिन राधा – कृष्ण की तरह बन जाए.हमारे पास जितनी भी पैसे गुल्लक में पड़े हैं,उससे हम राधा और कृष्ण के गेट अप के कपडे खरीदे और पूरे दिन ऐसे ही रहे .जीशान को ये आइडिया बेहद पसंद आया ,आखिर कृष्ण बनने की उसकी हसरत जी पूरी हो रही थी.दोनों ने अपने बचत में से कृष्ण - राधा की ड्रेस खरीदी और जन्माष्टमी के दिन पहन कर आस पास के मोहल्ले में घुमने लगे. दोनों की जोड़ी सच में जन्म-जन्मान्तर तक एक दूसरे के प्रेम में बंधे कृष्ण-राधा की तरह ही लग रही थी. परन्तु ये बात जैसे ही प्रिया के मम्मी पापा को पता चली ,तो उनदोनों ने प्रिया की बहुत पिटाई लगाई. प्रिया के पापा ने कहा अगर बनाना ही था तो कृष्ण बनते ,राधा क्यों बनी. प्रिया ने बड़ी ही ऊँची आवाज में कहा ,”राधा भी तो भगवान है न पापा.”  और अगले दिन ही प्रिया के पिता ने उसका नाम उस सरकारी विद्यालय से कटवा दिया. अब प्रिया और जीशान दोनों अलग अलग स्कूल में पढ़ते थे. इसके बावजूद, वे जब भी मिलते तो वो राधा कृष्ण वाला प्रेम उभर कर सामने आता, जिस प्रेम न ही कोई बंधन हैं और न ही कोई रोक टोक,जो प्रेम समाज की सारी मान्यता और झूठी परम्पराओं को ठेंगा दिखाता है.
धन्यवाद
राहुल आनंद .


मंगलवार, 30 जुलाई 2013

खाद्य सुरक्षा बिल-फायदा या नुकसान

    खाद्य सुरक्षा बिल- फायदा या नुकसान

आज़ादी के 65 सालों बाद भी हमारे देश में सभी लोगों को दो वक़्त का भोजन नहीं मिल पाता है .जहाँ २० साल में भारत ने हर मोर्चे पर तरक्की की है ,वहीँ आश्चर्यजनक ढंग से कुपोषण में भी जबरदस्त इज़ाफा हुआ है .वर्ल्ड बैंक के अनुसार ,भारत में पांच वर्ष से कम बच्चों  का कुपोषण स्तर दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या भारत में 41 करोड़ है ,यह संख्या उनकी है ,जिनकी आमदनी 1.26 डॉलर से भी कम है.हर बार सरकार गरीबों के लिए नये नये वादों के साथ सत्ता में आती तो है ,पर गरीबों की हालत जस की तस बनी रही . चार साल पहले केंद्र की यु .पी ए सरकार ने अपनी चुनावी घोषणा पत्र में खाद्य सुरक्षा बिल लाने का वादा किया था.



                     शुरुवाती चार सालों में तो केंद्र सरकार ने इस बिल को पास करवाने में कोई तत्परता नहीं दिखाई ,लेकिन चुनाव नजदिक आते हीं, इस बिल को पास करवाने के लिए यूपीए सरकार एड़ी चोटी का जोर लगाने लगी .
-आइये जानते हैं कि आखिर क्या है खाद्य सुरक्षा बिल और इसके फायदे?
-इसके तहत ३ सालों तक चावल ३ रूपये किलो ,गेंहू २ रूपये किलो और मोटा अनाज १ रूपये किलो देने का प्रावधान है.
-योजना का लाभ पाने का हक़दार कौन होगा,ये तय करने की जिम्मेदारी केंद्र ने राज्य सरकारों पर छोड़ दी है.
-घर की सबसे बुजुर्ग महिला को परिवार का मुखिया माना जायेगा
-गर्भवती महिला और बच्चों को ,दूध पिलाने वाली महिलाओं को भोजन के अलावा अन्य मातृत्व लाभ (कम से कम 6००० रूपये) भी मिलेंगे .
-इस योजना को लागू करने के लिए सरकार को इस वर्ष (2013-14)612.3 लाख टन अनाजों की जरूरत होगी .
- केंद्र को अनाज के खरीद और वितरण के लिए 1.25 करोड़ रूपये खर्च करने होंगे.
-गांवों की 75 फीसदी और शहरों की 50 फीसदी आबादी इस योजना के दय्रदे में आएगी.
-अगर राज्य सरकार सस्ता अनाज उबलब्ध नहीं करा पायी तो,केंद्र द्वारा मदद मुहैया कराई जायगी .
-6 से 14 वर्ष की आयु वाले बच्चों को आईसीडीएस(integrated child  development service) और मिड डे मिल योजना का लाभ मिलेगा.
-शिकायतों को दूर करने के लिए सभी राज्यों को फ़ूड पैनल या आयोग बनाना होगा .अगर कोई कानून का पालन नहीं करता है तो आयोग उसपर कारवाई कर सकता है.
-इस स्कीम को आधार स्कीम के साथ लिंक्ड किया जायेगा .इसके तहत हर नागरिक को विशिष्ट पहचान नंबर दिया जायेगा ,जोकि डेटाबेस से लिंक होगा.इसमें हर कार्ड हिल्डर का बायोमेट्रिक्स डाटा होगा.
-सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत अन्त्योदय अन्न योजना के तहत आने वाले लगभग 2.43 करोड़ निर्धनतम परिवार कानूनी रूप से प्रति परिवार के हिसाब से हर महीने 35किलोग्राम खाद्यान्न पाने के हकार होंगे .
-लोकसभा में दिसम्बर,2011 में पेश मूल में लाभार्थियों को प्राथमिक और आम परिवारों के आधार पर विभाजित किया गया था . मूल विधेयक के तहत सरकार प्रथिमकता श्रेणी वाले प्रत्येक व्यक्ति को सात किलो चावल और गेंहू देगी.जबकि समान्य श्रेणी के लोगों को कम से कम तीन किलों अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे दाम पर दिया जायेगा .
-खाद्य सुरक्षा बिल में संसोधन संसदीय स्थाई समिति के रिपोर्ट के अनुसार किये गये हैं,जिसने लाभार्थियों को दो वर्गो में विभाजित करने के प्रस्ताव को समाप्त करने की सलाह दी है.पैनल ने एक समान कीमत पर हर महीने प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम अनाज दिए जाने की वकालत की.
-शुरू में इस योजना को देश के 150 पिछड़े जिले में चलाया जायेगा और बाद में इस सब्सिडी को पूरे देश में लागू किया जायेगा.



                                    ------आखिर कौन सी बाधाएं हैं इस बिल को पास कराने में?
-10 मार्च 2013 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने कुछ बदलावों के साथ विधेयक को मंजूरी दी थी .हंगामे के बीच लोकसभा में खाद्य सुरक्षा बिल 6 मई को पेश किया गया ,लेकिन सदन में भ्रष्टाचार के मुद्दों पर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगी दल के हंगामे के चलते बिल पारित नहीं हो सका.
-कुछ राज्य सरकारों ने बिल को लेकर आशंका जतायी है,जबकि कई अन्य राज्य का कहना है प्रस्तावित कानून के आलोक में जो खर्चे बढ़ेंगे ,उसका जिम्मा केंद्र सरकार खुद उठाये ,उन्हें राज्यों के ऊपर ना डाला जाये.

-गैर सरकारी संघटनो की मुख्य आलोचना यह है कि बिल में मौजूदा बाल कुपोषण से निपटने के प्रावधानों को विधिक अधिकार में बदला जा सकता था ,जबकि सरकार ने ऐसा नहीं किया .
-इससे पहले १३ जून को भी यह अध्यादेश कैबिनेट की बैठक में आया था ,लेकिन यूपीए के घटक दलों के बीच आम सहमती नहीं बन पायी थी .बैठक में तय हुआ था कि सरकार इस मुद्दे पर विपक्षी दलों के साथ भी बात करेगी और विधेयक को बुलाने के लिए विशेष सत्र बुलाएगी .सरकार ने बजट सत्र में यह विधेयक पास करवाने की कोशिश की थी ,लेकिन भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के विरोध के कारण यह नहीं हो सका था.हालांकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नेता प्रतिपक्ष मानसून सत्र को समय से पहले बुलाकर इस विधेयक पर चर्चा करने की बात भी कही थी .लेकिन सरकार इस मुद्दे पर बहस करना ही नहीं चाहती है ,सरकार बस ये चाहती है कि कैसे भी करके ये अध्यादेश जल्द से जल्द पारित हो जाये .


                                        ------इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भाजपा के वरिष्ठ नेता क्या कहते हैं.
-भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने 6 जुलाई को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख से मुलाक़ात करने के बाद संवाददाताओं से कहा कि हम संसद के आगामी मानसून सत्र में इसका विरोध नहीं करेंगे ,लेकिन हम इसमें कुछ ख़ास संशोधन चाहते हैं.हालांकि उन्होंने अभी ये स्पष्ट नहीं किया है कि भाजपा क्या संसोधन चाहती है .
             विधेयक को लाने में विलम्ब पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि संप्रग नीत कांग्रेस सरकार ने विधेयक को पारित करने में इतना समय क्यों लगाया और वह भी अध्यादेश के जरिये,जबकि सरकार ने २००४ के चुनावों में वायदा किया था कि सत्ता में आने के १०० दिन के भीतर विधेयक लाया जायेगा .उन्होंने इस अध्यादेश को लोकतंत्र पर क्रूर मजाक करार दिया.
साथ ही उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी इस विधेयक पर चर्चा करने से कभी पीछे नहीं हटेगी.कांग्रेस का ये आरोप बेबुनियाद है कि भाजपा इस बिल को पारित नहीं करने देना चाहती.श्री सिंह ने कहा कि यह बात समझ से पड़े है कि सरकार ने इस अध्यादेश को लागू करवाने हेतु इतनी हड़बड़ी क्यों दिखा रही.
-वहीँ सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह ने अध्यादेश को लेकर तीखा निशाना साधते हुए कहा कि कोंग्रेस वोट बैंक की राजनीति में लगी है और उसके इरादे ठीक नहीं हैं .लोकसभा चुनाव नजदिक हैं और कांग्रेस में ऐसे अध्यादेश ठीक उसी तरह ला रही है,जिस तरह पिछले चुनावों में पहले मनरेगा योजना को लाया गया था.
-कोंग्रेस महासचिव अजय माकन और खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने कहा कि ने विपक्ष पर आरोप लगाया कि उसने संसद के पिछले सत्र में महत्वपूर्ण विधेयक को पारित करने में महत्वपूर्ण विधेयक को पारित करने में अडचन पैदा की . उन्होंने कहा कि यह अध्यादेश उचित है, यह कई लोगो की जीवन बचने वाला ,जीवन बदलने वाला हो सकता है.



                                       -----आइये जानते हैं इस बिल पर क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स

-खाद्य सुरक्षा बिल पर असंतुष्टि जताते हुए प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ डा. देवेन्द्र शर्मा ने कहा की इस बिल पर राजनैतिक दलों में  प्रयाप्त इक्छाशक्ति का अभाव दिखता है ,उन्होंने कहा की इस मामले में ब्राज़ील में बहुत कुछ किया गया है, २००१ में ब्राज़ील में जीरो हंगर प्रोग्राम की शुरुवात की गयी थी ,और ख़ुशी की बात है कि २०१५ तक यह देश सबका पेट भरने में सक्षम हो जायेगा. वहां यह प्रोग्राम पुरे योजनाबद्ध तरीके से देश की जरूरतों के हिसाब से पूरा किया गया था,जबकि खाद्य सुरक्षा बिल पूरी तरह से वोट बटोरने के लिए लाया गया बिल लगता है.

-कृषि लागत और मूल्य  आयोग के अध्यक्ष अशोक गुलाटी को लगता है कि मौ जुदा स्तिथि में अध्यादेश शुरू में खराब लग सकता है ,लेकिन यह बाद में यह सकारात्मक परिणाम देने वाला हो सकता है .उन्होंने कहा कि उन राज्यों में जब तक हम पी डी एस व्यवस्था तय नहीं करते ,उत्पादन को स्थिर नहीं करते और भंडारण और परिवहन में निवेश नहीं करते ,तो उक्त लाभ कितने दिनों तक मिलेगा .उन्होंने कहा कि उन राज्यों में पी डी एस लीकेज रोकने की चुनौती सबसे बड़ी है,जहाँ गरीबी सबसे ज्यादा हैं.दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह होगी कि खाद्य विधेयक की मांग को पूरा करने के लिए खाद्यान्न की बड़े स्तर पर खरीद से गेंहू और चावल के बाजार से निजी कारोबारी बाहर हो जायेंगे.

-वहीँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के आयुर्वेद संकाय के एसोसियेट प्रोफेसर आनन्द चौधरी ने कहा कि सरकार के अजेंडे में सिर्फ खाद्य सुरक्षा बिल ही क्यों है ?फ़ूड सेफ्टी और स्टेंडर्ड एक्ट-2006  के बारे में कोई क्यों नहीं बात करता .उन्होंने कहा की सरकार खराब और सस्ते अनाज को गरीबों में खपाना चाहती है. सभी पोलिटिकल पार्टी सिर्फ इस बिल के बहाने अपनी राजनीति चमकाने में लगी हुई है.


                       -जे एन यू से समाज शास्त्र में पी एच.डी कर रहे शोधार्थी संजय कुमार ने बताया कि इसमें कोई शक नहीं कि खाद्य सुरक्षा बिल आज की जरूरत है ,इससे लाखों करोड़ो लोगों की भूख  मिट सकती है.लेकिन उन्होंने यहाँ की खाद्य वितरण प्रणाली पर संशय जताते हुए कहा कि बिना इसे ठीक किये सारी परियोजना धरी की धरी रह जाएगी ,साथ ही उन्होंने कोंग्रेस की मंशा पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि चुनाव के समय ही कांग्रेस को अचानक गरीबों की चिंता क्यों सताने लगी ?
                     सरकार भले ही इस बिल को पास करवाने पर बिना ही संसदीय बहस पर अड़ गयी है,और राष्ट्रपति ने भी भले ही इस अध्यादेश पर अपनी मोहर लगा दी है .परन्तु इससे यूपीए-२ की मुसीबतें कम नहीं होने वाली है.
खाद्य सुरक्षा से जुडी सरकारी योजनाओ को छूट  देने के विकासशील देशों के संघठन जी-३३ के प्रस्ताव पर अमेरिका ने अपना रवैया सख्त कर रखा है और वह भूख और कुपोषण के शिकार लोगों की पोषण जरूरतों को पूरा करने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी सीमा को लेकर भी रूचि नहीं दिखा रहा है.इससे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ एकता सकता है
                 विश्व व्यापार संगठन में अमेरिकी राजदूत माइकल पुनके ने विकासशील देशों के प्रस्ताव की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि भारत बेहिसाब सब्सिडी देकर कारोबार को धक्का पहुंचा रहा है और इससे एक नये तरह का संकट पैदा हो सकता है.

निष्कर्ष – लगभग सभी दलों और विशेषज्ञ ने खाद्य सुरक्षा बिल को आज की जरूरत बताया है ,लेकिन इस बिल को पास करवाने की हड़बड़ी ने यूपीए-२ की चुनावी महत्वकांक्षा को भी उजागर किया है .वहीँ  विपक्षी पार्टी भाजपा सहित तमाम दलों ने इस महत्वपूर्ण बिल पर संसद के दोनों सदनों पर चर्चा नहीं कराने को लेकर आलोचना की है . सभी एक्सपर्ट्स ने पहले देश की खाद्य वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की मांग की है.कुछ दलों ने इस बिल के लागू होने के बाद सरकारी खजाने पर जबर्दस्त आर्थिक बोझ पड़ने की आशंकाएं व्यक्त की है,जिससे अन्य महत्वपूर्ण योजना के  खटाई में भी जाने के आसार हैं.
श्रोत –दैनिक हिन्दुतान ,बी बी सी ,आज तक ,ग्राउंड रियलिटी(ब्लॉग,देवेन्द्र शर्मा )
धन्यवाद

राहुल आनंद
भारतीय जनसंचार संस्थान (2012-2013) ,नई दिल्ली  
   


शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

बदहाल सरकारी शिक्षण प्रणाली

मुझे पता है मेरे कुछ लिखने से क्रांति नहीं आने वाली है या फिलहाल कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आने वाला है ,लेकिन मेरा एक बहुत बेसिक सा सवाल है कि सरकारी स्कूलों में पढाई क्यों नहीं होती ? आखिर क्या वजह है की योग्य शिक्षक भी पढ़ाने से कतराते हैं ? और वही शिक्षक जब चंद पैसों के लिए उन्हीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं,तो वहाँ बहुत मन से पढ़ाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें बहुत कम पैसे मिलते हैं (नियोजित शिक्षक को छोड़कर) , कईयों को लगभग 30000 से 40000 रु तक  मासिक तनख्वाह मिलती है तो आखिर वे पढ़ातेे क्यों नहीं ?
             क्यों हमे अच्छी शिक्षा के लिए निजी विद्यालयों का मुंह ताकना पड़ता है? उनके मन माने फ़ीस को भरना पड़ता है। सरकार 2015 तक देश की 80 फीसदी आबादी को शिक्षित करना चाहती है। पर कैसे ? गरीब बच्चे फिर उन्हीं सरकारी विद्यालयों में जायेंगे ,मिड डे मिल खा कर मरेंगे ,और जो बच गये उन्हें वे सरकारी शिक्षक कैसी शिक्षा देंगे। क्या सरकार सिर्फ साक्षर बच्चो के प्रतिशत की खाना पूर्ति करना चाहती है। आखिर गरीब बच्चो को अच्छी शिक्षा पाने का हक क्यों नही है,सिर्फ इसलिए कि उनके पास महंगे निजी विद्यालयों में पढने के पैसे नहीं है। अरे, मै सरकारी विद्यालय में फाइव स्टार होटलों(महंगे निजी विद्यालय) जैसी सुविधा की बात नहीं कर रहा हूँ। मै बस बेसिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात कर रहा हूँ ,ये अधिकार गरीब बच्चों को कौन दिलाएगा ? क्या सरकार का लक्ष्य बच्चो को सिर्फ साक्षर करने का होना चाहिये या अच्छी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा। कई जगह पर इतनी घटिया पढाई होती है कि आप कल्पना नहीं कर सकते ।देश में अच्छे साइंटिस्ट नहीं है ,अच्छे डॉक्टर नहीं है ,देश में रिसर्च की स्तिथि दयनीय है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है। बड़े घर के यो- यो कल्चर वाले बच्चे यदि डॉक्टर ,इंजिनियर ,साइंटिस्ट बनते भी है ,तो वो विदेश को तरहिज देते हैं। और अधिकाँश गरीब बच्चों को वैसी शिक्षा मिल ही नहीं पाती ,जिससे वे यहाँ तक पहुंचे। एकाध जो पहुँच भी जाते हैं ,वे खुद केे मेहनत और लम्ब  संघर्षों के बाद पहुँच पाते हैं। खैर ,बुनियादी स्तर पर जब ये हाल है ,तो विश्वविद्यालयों की बात करना भी बैमानी है। फिर भी जो गिने चुने विश्वविद्यालय हैं ,वहां भी गरीब ,शोषित कितने बच्चे आ पाते हैं ,ये सबको पता है। वैसे भी जब बच्चो को सही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिली है तो वो विश्वविद्यालय तक कहाँ से आ पाएंगे?और अगर आ भी गये ,तो विश्व स्तरीय विश्विद्यालय कहाँ है हमारे पास। हाल के ही सर्वे में ये बात सामने आई है कि विश्व के शीर्ष 200 विश्विद्यालय में भारत का एक भी विश्विद्यालय शामिल नहीं है। इससे ज्यादा और शर्म की बात और क्या हो सकती है।
                    ऐसी शिक्षा पद्धति से हम किस और जा रहे हैं? क्या सिर्फ निजी विद्यालय के बच्चों को ही डॉक्टर ,इंजिनियर बनने का अधिकार है? सरकार देश के हर बच्चे को शिक्षित करना चाहती है ,पर कैसी शिक्षा देकर ।। मै ,उस दिन बहुत खुश होऊंगा ,जब उसी सरकारी स्कुल के शिक्षक अपने बच्चे को भी ख़ुशी ख़ुशी अपने ही स्कुल में शिक्षा देंगे। उसी दिन समानता आएगी ,उसी समय से देश भी खुशहाली के पथ पर आगे बढेगा।
राहुल आनंद े

फिल्म अनुभव-भाग मिल्खा भाग

फिल्म अनुभव -भाग मिल्खा भाग

जब से फिल्म देख कर आया हूँ ,जी कर रहा है ,बस
भागता जाऊं ,भागता जाऊं।
फरहान अख्तर के बेहतरीन अभिनय से सजी यह
फिल्म दर्शकों के मन में अमिटछाप छोड़ने में सफल
रहती है।किसी भी डाइरेक्टर के लिए किसी प्रसिद्ध
व्यक्ति को पर्दे पर उतारना हमेशा चुनौतीपूर्ण
होता है।, और बहुत हद तक राकेश ओम प्रकाश
मेहरा इसमें सफल भी हुए हैं।कहीं कहीं फिल्म के दृश्य
बेवजह लम्बे नज़र आते हैं,ये इस फिल्म का सबसे
कमजोर पहलु है। फिल्म थोड़ी और
छोटी हो सकती थी। निर्देशक कई दृश्य को हटाने
का मोह नहीं त्याग पाए। खैर ,यह बेहतरीन मौका है
"फ़्लाइंग सिख "मिल्खा सिंह के बारे में जानने का।
फरहान अख्तर की मेहनत देखते बनती है। पूरे फिल्म
में वे भी अपने कसे हुए सुडौल शरीर के साथ दौड़ते
नज़र आये हैं।पर जितने तेजी से वे दौड़ते हैं,फिल्म
उतनी तेजी से नहीं दौड़ पाती। फिल्म
की सिनेमेटोग्राफी बेजोड़ है।
पानी की उड़ती बूंदों ,फरहान अख्तर के पैर
की उडती धूल देखते बनते हैं।
सभी कलाकारों का अभिनय बेजोड़ है,खासकर
दिव्या दत्ता का अभिनय सराहनीय है। सोनम कपूर के
लिए इस फिल्म में करने के लिए ज्यादा कुछ
था नहीं,इसलिए उन्होंने भी ज्यादा कुछ करने
की जरूरत नहीं समझी।फिल्म का संगीत औसत है ,कई
गाने नहीं भी होते तो फिल्म को कोई नुक्सान
नहीं पहुँचता।खैर,फिर भी राहुल इस फिल्म को फरहान
अख्तर की बेजोड़ अभिनय के लिए पांच में से देता है
साढ़े तीन स्टार।
अगर आप जज्बे से लैस हैं,और कड़े परिश्रम
की अहमियत समझते हैं,तो भाग दर्शक
भाग ,नजदीकी सिनेमा हॉल तक।